मुरली के बस स्याम भए री।
अधरनि तैं नहिं करत निनारी, वाकैं रंग रए री।।
रहत सदा तन-सुधि बिसराए, कहा करन धौं चाहति।
देखी, सुनी न भई आजु लौं, बाँस बँसुरिया दाहति।।
स्यामहिं निदरि निदरि हमहुँ कौं, अबहीं तैं यह रूप।
सुनहु सुर हरि कौ मुंह पाऐं, बोलति बचप अनूप।।1231।।