मुझसे करके प्रेम, चाहता जो उसका बदला पाना।
वह भी सुकृति पुण्यजन, जिसने मुझको फलदाता जाना॥
उससे ऊँचा वह प्रेमी है, जो निष्काम प्रेम करता।
सेवा करके मुक्ति चाहता, मायिक जगसे जो डरता॥
उससे भी ऊँचा वह मेरा प्रेमी शुद्ध हृदय प्यारा।
देते-देते मुझे मधुरतम वस्तु कभी न थका-हारा॥
उससे भी उच्च स्तर पर वह, जो सेवा करता दिन-रात।
सेवाका फल सदा चाहता, सेवाकी बढ़ती अभिजात॥
जो न किसी का दास, किसी को नहीं बनाता दास कभी।
युग-युग सेवा ही जो करता, त्याग अन्य व्यवहार सभी॥
उससे ऊँची प्रेममयी हैं वे सौभाग्यवती गोपी।
जो निज-सुखको भूल सर्वथा सबसे बढक़र हैं ओपी॥
स्नेह-राग-अनुराग-भावकी उठती जिनमें अमित तरङ्ग।
जिनका मुझसे छाया सारा जीवन, सभी अङ्ग-प्रत्यङ्ग॥