मुक्ति आनि मंदे मैं ली।
समुझि सगुन लै चले न उधौ, यह तुम पै सब पुँजी अकेली।।
कै लै जाहु अनत ही बेचौं, कै लै राखु जहाँ बिष बेली।
याहि लागि को मरै हमारै, वृन्दावन चरननि सौ ठेली।।
धरे सीस घर घर डोलत हौ, एकै मति सब भई सहेली।
'सूरदास' गिरिधरन छबीलौ, जिनकी भुजा कंठ धरि खेली।।3724।।