मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी ।। टेक ।।
जब जब सुरत लगे वा घर की, पल पल नैनन पानी ।
ज्यों हिये पीर तीर सम सालत, कसक कसक कसकानी ।
रात दिवस मोहिं नींद न आवत, भावै अत्र न पानी ।
ऐसी पीर बिरह तन भीतर, जागत रैन बिहानी ।
ऐसा बैद मिलै कोइ भेदी, देस बिदेस पिछानी ।
तासों पीर कहूँ तन केरी, फिर नहिं भरमों खानी ।
खोजत फिरों भेद वा घर को, कोई न करत बखानी ।
रैदास संत मिले मोहि सतगुरु, दीन्हा सुरत सहदानी ।
मैं मिली जाय पाय पिय अपना, तब मोरी पीर बुझानी ।
मीरा खाक खलक सिरडारी, मैं अपना घर जानी ।।159।।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनमानी = मन में जँच गई व बैठ गई। सुरत सैल = ध्यान द्वारा भ्रमण विहार व सैर सपाटा। सैल = सैर ( देखो - ‘गोप अथाइन तें उठे गोरज छाई गैल। चलि बलि अलि अभिसार को भली सँझोखी सैल’ - बिहारी लाल। असमानी = आसमानी, ऊँची, ईश्वरीय। वा घर की = उस ( ईश्वरीय) अगम देश की। सुरत = स्मृति, स्मरण। पल... पानी = सदा (आनन्द के कारण ) आँखों में आँसू भर आते हैं। ज्यों = मानों। हिये पीर = प्रेम की पीर। सालत = व्यथित करती है। कसक... कसकानी = मीठे दर्द की एक एक साल ( टीस) टीसा करती है। बिहानी = बीत गई। भेदी = रहस्य का जानकार। पिछानी = पहचना करने वाना। खानी = खानि, उत्पत्ति स्थान वर योनि। (देखो- ‘दारिद बिदारिवे को प्रभु की तलाश, तो हमारे यहाँ अनगिन दारिद की खान हैं’- दास)। भरमों = आवागमन में भ्रमण करूँ। सहदानी = निशानी, चिह्न। खलक = सृष्टि, संसार। खाक सिर डारी = तिरस्कार कर त्याग दिया, उपेक्षा कर दी। जानी = जान गई।

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