मीराँबाई की पदावली पृ. 7

मीराँबाई की पदावली

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मीराँबाई का जीवन-वृत

परन्तु उपलब्ध ऐतिहासिक विवरणों द्वारा इन सभी बातों की पुष्टि होती नही जान पड़ती। स्व. मुं. देवीप्रसाद मुंसिफ ने इस विषय में केवल इतना ही लिखा है कि मीराँबाई को राणा विक्रमाजीत के दीवान कौम महाजन बीजावर्गी ने जहर दिया था। मीराँबाई का आप बीजावर्गी कौम को अब तक लगा हुआ है और वे मानते है कि उस श्राप से हमारी औलाद और दौलत में तरक्की नहीं होती है।[1] प्रसिद्ध है कि मीराँबाई ने उक्त दुव्र्यवहारों से तंग आकर गोस्वामी तुलसीदास जी के साथ, अपना कर्तव्य निश्चित कराने के लिए, पत्र-व्यवहार किया था, किन्तु यह घटना भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर असंदिग्ध नहीं ठहरती। [2] महाराणा विक्रमाजीत सिंह के शासन की कुव्यवस्था से उत्साहित होकर सं. 1589 वि. [3] में गुजरात के बादशाह बहादुरशाह ने मेवाड़ पर चढ़ाई की और कुछ समय तक यु़द्ध होने के उपरान्त, सन्धि हो गयी। किन्तु सं. 1591 वि.[4] में ही उसने फिर दूसरा आक्रमण किया जिसके उपलक्ष्य में महाराणा की माता कर्मवती देवी तक की आहुति हो गयी और चित्तौड़ पर बादशाह का अधिकार हो गया। सम्भवतः इस घटना के ही आसपास, किसी समय, अपने चाचा राव वीरमदेव जी की बुलाहट पर, मीराँबाई मेवाड़ छोड़कर अपने पीहर मेड़ता चली गयीं। मेड़ता का वातावरण उनके लिए बहुत अनुकूल था। राव वीरमदेवजी तथा जयमल जी, दोनों ही उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते थे और उनकी ओर से उन्हें अच्छा सुमीता भी मिलता रहा। कहा जाता है कि राजमहल के जिस भाग में वे उस समय श्री गिरघरलाल की पूजा किया करती थी वह कदाचित् चतुर्भुज भगवान् के मन्दिर में सम्मिलित है और 'मीराँबाई की भोजनशाला' के नाम से, भग्नावशिष्ट दशा में, आज भी वर्तमान है। अस्तु, उधर, मीराँबाई द्वारा मेवाड़ त्याग के अनन्तर, यद्यपि, कुछ दिनों तक ही रह कर, बहादुरशाह सं.1592 [5] में चित्तौड़ छोड़कर भाग गया और महाराणा विक्रमाजीत सिंह का उस पर फिर अधिकार हो गया, किन्तु शीघ्र ही[6]

महाराणा रायमल के राजकुमार पृथ्वीराज का अनौइस पुत्र [7]वरगवीर चित्तौड़ पर चढ़ आया और महाराणा को मार कर गद्दी पर बैठ गया। इधर मेड़ते की भी दशा इन दिनों कुछ बुरी हो चली थीं। मेड़ता और जोधपुर के राज्यों के बीच सं.1588 वि.[8]से ही अनबन चल रही थी। तद्नुसार जोधपुर के राव मालदेव ने सं.1595 वि.[9] में राव वीरमदेव जी से मेड़ता छीन लिया और मीराँबाई की दैनिक चर्चा, स्वभावत; अव्यवस्थित-सी हो गयी। उपरोक्त घटनाओं के कारण मीराँबाई के ऊपर इस समय ऐसी विरक्ति का रंग चढा़ कि उन्होंने मेड़ता को भी त्याग कर तीर्थयात्रा करने की ठान ली और पर्यटन करती हुई वे वहाँ से वृन्दावन पहुँच गयी। कहते है वृन्दावन में उस समय प्रसिद्ध रूप गोस्वामी के भतीजे चैतन्य सम्प्रदायी श्री जीवगोस्वामी जी रहा करते थे और वहाँ के साधुओं में वे परम प्रसिद्ध थे मीराँबाई सर्वप्रथम, कदाचित, उन्हीं के यहाँ गयीं। गोस्वामी जी ने पहले उनसे मिलना स्वीकार नहीं किया और कहला भेजा कि मैं स्त्रियों से नहीं मिला करता। परन्तु, मीराँबाई के इस सन्देश पर कि मैं तो अब तक समझती थी कि वृन्दावन में भगवान श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष है और अन्य सभी लोग केवल योगी या स्त्री रूप है; मुझे आज ज्ञात हुआ कि भगवान के अतिरिक्त अपने को पुरुष समझने वाले यहाँ और भी व्यक्ति विद्यमान है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बाबू शिवनन्दन सहाय रचित 'श्री गोस्वामी तुलसीदास' खडग् विलास प्रेस, बाँकीपुर, पृ० 113-4 में उद्धृत।
  2. देखों परिशिष्ठ-क
  3. सन् 1532 ई.
  4. सन्1534 ई.
  5. सन् 1535 ई.
  6. सं. 1593 वि० सन 1536 ई0 में ही
  7. पासवानियाँ
  8. 1531ई.
  9. सन 1538

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