मीराँबाई की पदावली पृ. 47

मीराँबाई की पदावली

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मीराँबाई व नामदेव तथा रैदास

जायसी की ‘पिउ हिरदय महूँ भेंट न होई’ और मीरां की ‘गंगन मंडल पै सेझ पिया की किस विध मिलणा होइ’[1] पंक्तियो की तुलना करने पर हमारा ध्यान संत कवियों की ओर भी सहसा आकृष्ट हो जाता है। संत कवियों में नामदेव मीरां से कदाचित् सवा दो सौ से भी अधिक वर्ष पहले उत्पन्न हुए थे और उनकी अधिकांश रचनाएं, हिंदी में न होकर, मराठी भाषा में है, किंतु साकारोपासना के प्रति मनोवृत्ति एवं भजन भाव में पूर्ण अ‌वस्था रखने के कारण, वे मीरां के बहुत कुछ समान थे। उनका अपने स्वामी विट्‌ठल के प्रति उतना ही प्रगाढ़ अनुराग था, जितना मीरां का अपने प्रियतन श्री गिरधर लाल की ओर और वे उनकी मूर्ति के सामने खड़े हो और हाथों में करताल लेकर, कदाचित् उसी भाँति आवेशमय कीर्तन करते थे जिस प्रकार मीरां ज्यूँ त्यूँ वाहि रिझाने में प्रवृत होती थीं। नामदेव के सब गोविंद है सब गोविंद है, गोविंद बिन नहीं कोई,[2] से भी हमें मीरां के 'सब घट दीसै आत्मा'[3] का स्मरण हो आता है।

परंतु मीरां के हृदय की असाधारण कोमलता व परम वैराग में उनकी पूर्ण निष्ठा देख कर उनका रैदास जी के साथ भी तुलना करना अनुचित नहीं जान पड़ता। रैदासजी कदाचित् विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य में उत्पन्न हुए थे और मीरांबाई का जन्म विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के मध्य में हुआ था, किंतु मीरां के समय राजस्थान की ओर अधिकतर रैदासी संतों द्वारा ही, संत मत का प्रचार होते रहने के कारण, उन्होंने रैदासजी को अपने प्रत्यक्ष गुरु की भाँति समझ रक्खा था। रैदास जी, संसार की गति विधि का अनुभव करके, उसके कारण, अत्यंत दुखी थे और, सांसारिक जनता की विविध विड़ंबनाओं द्वारा मर्माहत होकर, उन्होंने ‘हम जानी प्रेम, प्रेम रस जाने नौ

विधि भगति कराई'[4] के सिद्धांत को ही अधिक महत्त्व दिया गया था तथा, परमात्मा के प्रति आत्म निवेदन करते समय भी, वे अधिकतर ‘जो हम बांधे मोह फांस, हम प्रेम बंधनि तुम बांधे’[5] जैसे ही उद्गार प्रकट किया करते थे। प्रेम साधिका मीरां भी, प्राय: उसी प्रकार, संसार ‘को कुवधि को भांडो’ समझा करती थीं और लोगों को सदा व्यर्थ के झमेलों में ही अपना ‘जनम गंवाता’ देख उनकी मूर्खतापूर्ण बुद्धि पर तरस खाकर कभी-कभी रोई अर्थात रो तक दिया करती थीं। रैदासजी की 'परम वैराग' वाली भावना से भी मीरांबाई के 'सहज-वैराग' की बहुत बड़ी समानता है। इसी प्रकार रैदासजी के प्रसिद्ध पद ‘जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा’ आदि की निम्नलिखित पंक्तियों में हमें मीरां का ही हृदय अपने भाव व्यक्त करता हुआ जान पड़ता है, जैसे –

‘सांची प्रीति हम तुम सिउ जोरी, तुम सिउ जोरि अवर संगि तोरी ।
जहँ-जहँ जाऊँ तहाँ तोरी सेवा, तुम सो ठाकुर अउरु ने देवा॥’[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद 72
  2. ‘नामदेव ची गाथा’।(पेज 521)
  3. पद 158
  4. ‘रैदास जी बानी’, पृ, 4।
  5. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ पृ. 657।
  6. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’, पृ. 657.8।

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