मीराँबाई की पदावली पृ. 42

मीराँबाई की पदावली

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मीराँबाई व सूरदास

मीराँ द्वारा प्रदर्शित प्रेम में, कदाचित् उसके मूलत: विरह–गर्भित होने के कारण, सदा ‘मिल बिछुड़न जनि होय’ की ही आशंका बनी रहती है और उसी प्रकार, उनके विरह में भी हमें बहुधा ‘प्रेम नदी के तीरा’ पर होने वाले मिलन की ही झलक दीख पड़ती है, परंतु सूर हमें सदा मिलन के अमिश्रित आनंद तथा विरह की अमिश्रित वेदना के ही भाव दर्शाया करते हैं। सूर में जहाँ-जहाँ मिलन की दशा है, वहाँ-वहाँ लीला या क्रिड़ाओं का भरपूर सुअवसर मिल जाता है और, उसी प्रकार, जहाँ विरह की भावना जाग्रत हुई है, वहाँ वह नितांत एकरस ही बनी रह गई है। सूर की रचनाओं में ऐसे स्थल कम मिलेंगे जहाँ क्षणिक विरह के वर्णन हों। सूर ने कदाचित् श्रृंगार के सर्वश्रेष्ठ कवि होने के नाते, संयोग व वियोग दोनों के ही वर्णन पूर्ण सफलता के साथ किए हैं, किंतु मीराँ का विप्रलंभ–वर्णन ही बहुत उत्कृष्ट उतरा है। सूर के पदों में, इसी प्रकार, कला पक्ष एवं हृदय पक्ष दोनों ही प्राय: एक ही भांत प्रबल हैं, किंतु मीरां की रचनाओं में हृदय पक्ष की ही प्रधानता है और इस अंतर का कारण बनने में कदाचित् मीराँबाई के स्त्रीत्व का ही अधिक हाथ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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