मीराँबाई की पदावली पृ. 30

मीराँबाई की पदावली

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छंद
कठनाई का विवरण

पदावली के अन्तर्गत आये हुए पदों को ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि मानो उनकी रचना पिंगल के नियमादि को दृष्टि में रखकर नहीं की गई थी अथवा, उनके विशेष रूप से गाने योग्य होने के कारण, पीछे से उनमें, संगीत की सुविधाओं के अनुसार, परिवर्तन कर दिये गये हैं। पिंगल की दृष्टि से नाप जोख करने वाली पदावली का, कदाचित्, र्काइ भी पद नियमानुसार बना हुआ प्रतीत नहीं होता। किसी में मात्रायें बढ़ती हैं तो किसी में घट जाती हैं; किसी में दो तीन तक शब्द ही बढ़ जाते हैं तो कहीं गतिभंग का दोष पड़ जाता है; और कहीं कहीं पर नियमादि की उपेक्षा के कारण, यह कहना कठिन हो जाता है कि किसी पंक्ति वा किन्हीं पंक्तियों की, किन लक्षणों को दृष्टि में रखकर परीक्षा की जाय। तो भी पदावली के अंतर्गत कम से कम 15 प्रकार के छंद अवश्य आये हैं। इनमें से मुख्य-मुख्य छंदों के नाम, लक्षणादि एवं, उनके अनुसार समझ पड़ने वाले कुछ दोषों के उदाहरण नीचे दिये गये हैंः-

1. सार छंद - इस छंद का प्रयोग पदावली के लगभग एक तिहाई पदों के अन्तर्गत हुआ है। यह एक मात्रिक छंद है जिसमें, 16 और 12 के विश्राम से 28 मात्रायें होती हैं। इसके अन्त में दो गुरु आते हैं, किन्तु किसी-किसी में उनकी जगह केवल एक वा तीन गुरु भी माने हैं। इसकी रचना मुख्यतः 16 मात्राओं तक चैपाई के तुल्य होती है और पिछली 12 मात्राओं में 3 चौकल अथवा 2 त्रिकल ‘1 चौकल और 1 गुरु आते हैं, पदावली में प्रयुक्त सार छंद पद 39, 40, 81, 98, 139 व 145, में ‘रे’ 12 व 91 में ‘री’; 104, 107 व 152 में ‘हो’; तथा 112, 127 व 149 में ‘जी’ के अतिरिक्त प्रयोगों के कारण और उसी प्रकार, पद 92 व 171 में ‘एमाय’ एवं 38 में ‘हो माई’ के आजाने से, सदोष कहा जाता है। पद 85 में प्रयुक्त ‘भुलावना’ ‘सतावणां’ आदि भी मात्रा बढ़ा देते हैं।

2. सरसी छंद - इस छंद का प्रयोग भी पदावली के अंतर्गत बहुत हुआ है। सार छंद से इसके उदाहरण केवल 10-12 ही कम होंगे। यह छंद भी मात्रिक है और, 16 और 11 के विश्राम से, इसमें 27 मात्रायें होती हैं। इसके अन्त में गुरु व लघु आते हैं और इसका दूसरा दल दोहे के सम चरणों के समान ही होता है। इस छंद के प्रयोगों में भी हम प्रायः उक्त सारछंद के ही समान त्रुटियाँ पाते हैं। पद 48 में ‘री’; 151, 169 में ‘रे’; 175 में ‘नी’ व ‘रे’; 142 में ‘छैजी’ तथा 165 में ‘मां’ के बढ़ जाने से छंद सदोष हो जाता है और उसी प्रकार 77 के अन्त में गुरु के आ जाने से पद 44, व 201 में एक ही पद के अन्तर्गत सरसी व दोहा छंछों का सम्मिश्रण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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