मीराँबाई की पदावली पृ. 24

मीराँबाई की पदावली

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काव्यत्व

वे, आत्मीयता के आवेश में, कभी कभी[1]उस ‘निरमोहिया’ वा ‘धूतारा जोगी’ के प्रति उपालंभ के भाव व्यक्त करती हुई मिलती हैं तो अन्यत्र[2], उसके साथ मिलन के उपलक्ष में, अपनी चूडि़याँ फोड़ने, माँग बखेरने, आँखों के काजल धोने, ‘चीर को फाड़ व उसको गले में डालने के लिये कंथा बना, ‘वैरागिण’ होने अथवा ‘अगर चँदण की चिता’ रचकर उसके ‘अपणे हाथ’ लगायी गई आग में ‘जल बल’ कर ‘भस्म की ढेरी’ हो जाने तथा ऐसे रूप में भी, उसके अंग लगने के लिये उद्यत हो, उसी से अनुनय विनय करती हुई भी दीख पड़ती हैं। ये सभी बातें पूर्वराग से सम्बन्ध रखती हैं।

काव्यत्व

मीराँबाई ने अपने विरह का वर्णन भी बड़े सुन्दर ढंग से किया है। इनके पदों में विरह का एक अलग महत्त्व है। वह उक्त पूर्वानुराग में ही किसी न किसी प्रकार से दीख पड़ने लगता हैै। हम ऊपर देख चुके हैं कि मीराँबाई का प्रेम, लौकिक रूप में व्यक्त होता हुआ भी, परमात्मा से सम्बद्ध होने के कारण, वास्तव में अलौकिक, अतएव, आध्यात्मिक व विरह-गर्भित भी था।

मीराँबाई को यह बात सिद्धान्तरूप से स्वीकृत है कि उनमें और उनके इष्टदेव वा प्रियतम में, जीवात्मा एवं परमात्मा की मौलिक एकता के कारण, कोई वास्तविक अन्तर नहीं। जीवात्मा को ज्योंही अपने पूर्व सम्बन्ध वा उक्त मौलिकता का ज्ञान हो जाता है त्योंही वह, अपने काल्पनिक आवरण रूपी शरीर एवं तत्सम्बद्ध प्राकृतिक परिस्थितियों के असली रहस्य, को समझ उनके प्रति उदासीन हो जाता है और एक बार फिर उस मिलन के लिए आतुर हो उठता है जिसे, निरे अज्ञान के कारण वह भूल सा गया था। अपने उस अविनाशी प्रियतम के प्रति प्रदर्शित इस प्रकार की ‘आर्ति’ को ही विरह-गर्भित प्रेम की संज्ञा दी जाती है। इस प्रेम के रूप को समझाने के लिये प्रसिद्ध सूफी कवि जायसी ने कहा है कि-

‘प्रेमहिं मांह विरहरसरसा। मैन के घर मधु अमृत बसा।।’-
‘जायसी ग्रंथावली’[3]

अर्थात् जिस प्रकार मोम के घर अथवा मधुकोष में अमृत रूपी मधु संचित रहता है, उसी प्रकार प्रेम के अन्तर्गत बिरह भी निवास करता है। बिरह को सदा सच्चे प्रेम के भीतर निहित समझना चाहिए, क्योंकि प्रेम का अस्तित्व यदि है तो वह विरह के ही कारण है- विरह ही प्रेम का सार है। इस प्रेम का आधार, जायसी के भी अनुसार, स्वयं परमात्मा एवं सारे ब्रह्मांड की एकता में सन्निहित है जिसको भूल जाने के कारण सारी सृष्टि आरम्भ से ही पूर्ण विरही की भाँति निरन्तर बेचैन बनी डोलती चली आ रही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद 56 से 62 तक में
  2. पद 48 से 55 तक में
  3. वा. ना. सभा पृ. 92

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