मीराँबाई की पदावली पृ. 20

मीराँबाई की पदावली

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माधुर्य भाव

यह नितान्त नित्य, एकरस व स्वार्थ रहित, अतएव ‘कामगंध हीन’ हुआ करता है। ऐसे प्रेम में कामवासना को कोई भी स्थान नहीं; ‘कामगंध हीन’ होने पर ही उसे उस ‘गोपी भाव’ की प्राप्ति होती है।[1]

साधन का रूप

मीराँबाई का आदर्श ब्रज की उक्त गोपियाँ थीं और उनका आदर्श प्रेम भी उक्त ‘गोपी भाव’ था। प्रसिद्ध है कि वे स्वयम् अपने को ललिता नाम की किसी गोपी का अवतार भी समझा करती थीं और अपने प्रियतम श्री गिरधरलाल के साथ कदाचित् इसी पूर्ण सम्बन्ध का परिचय उन्होंने अपने पदों में आये हुए अनेक उल्लेखों[2] द्वारा किया है। कई स्थलों[3]पर वे श्री गिरधरलाल को स्वकीया की भाँति अपना पति समझती हुई भी दीख पड़ती हैं, किन्तु कदाचित् विपरीत परिस्थिति के कारण उनके अनेक उद्गार परकीया के जैसे ही प्रकट हुए समझ पड़ते हैं। वे अपने प्रियतम को सदा ‘प्रिया’, ‘पिव’, ‘उण’, ‘धणी’, ‘सैंया’, ‘भरतार’, ‘भवनपति’, ‘साजन’ अथवा ‘वर’ तक कह कर सम्बोधित करती हैं और एकाध पदों में उनके ‘सौतिया डाह’ जैसे भाव का भी कुछ संकेत मिलता है, किन्तु तौ भी उन्हें सांसारिक दृष्ठि से, एक परोक्ष व अमूर्त्त अथवा प्रत्यक्ष व मूर्तिमान् होने पर भी, निर्जीव दीख पड़ने वाले ‘व्यक्ति’ को नाच गाकर रिझाते समय लोक लज्जादि के संकोच बाधा पहुँचाने लगते हैं।

वे अपनी दृष्टि में, कदाचित स्वकीया ही हैं, किन्तु लोक दृष्टि में ऐसे सम्बन्ध के असम्भव समझे जाने के कारण, वे एक परकीया के रूप में लक्षित होती हैं। उनके स्वजन उक्त वास्तविक रहस्य को समझ पाने में असमर्थ हैं और वे उनकी सच्चाई में सन्देह तक करने लग जाते हैं। परिणामस्वरूप उनके, वास्तव में ‘प्रेमदिवाणी’ मात्र होने पर भी लोग उन्हें ‘कुलनासी’ आदि कहने से भी नहीं चूकते और उनकी ‘हाँसी’ तक उड़ाने में प्रवृत्त हो जाते हैं। परनतु मीराँबाई को ऐसी ‘बदनामी’ सदा ‘मीठी’ ही लगा करती है और वे लाख -बुरी-भली’ कही जाने पर भी अपनी ‘अनूठी चाल’चलने पर ही दृढ़ रहती हैं। वे सदा अपनी ‘रामखुमारी’ में ही ‘मस्त डोलती’ फिरती रह जाती हैं।

विवरण

उक्त माधुर्यभाव वा परमभाव की पदरचना करते समय मीराँबाई को, इसी कारण, पुरुष-भक्त कवियों की भाँति, कृष्ण के प्रति उनकी प्रेमिका ब्रज सुन्दरियों द्वारा प्रदर्शित विविध भावों का ‘वर्णन’ करना नहीं है और न, अधिक से अधिक अपने ऊपर स्त्रीभाव का कोई काल्पनिक आरोप कर तद्वत चेष्टाओं का ‘प्रदर्शन’ ही करना है। वे स्वयम् स्त्री हैं और अपने इष्टदेव श्री गिरधरलाल को पतिरूप में स्वीकार भी कर चुकी हैं, अतएव उन्हें अपने को किसी अवस्था-विशेष में रखने का प्रयत्न नहीं करना है। वे माधुर्यभाव की सभी स्त्री सुलभ बातें योंही अनुभव कर लेती तथा उन्हें तदनुकूल शब्दावली में, स्वाभाविक रूप से, व्यक्त कर देती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'काम गन्धहीन हइले गोरीभाव पाय'-विवर्त्त विलास, पृ० 89
  2. जैसे, ‘मेरी उणकी प्रीत पुराणी’ -पद 17; ‘पूरब जनम कौ कोल’ -पद 19; ‘पूरब जनम की प्रीत पुराणी’ -46, ‘पूर्व जनम की प्रीत हमारी’ - पद 54; ‘जनम जनम की चेली’ - पद 80; जनम जनम की दासी’ -पद109; ‘पूरब जनम का साथी’ -पद 124; अथवा ‘गोकुल अहीरणी’ -पद 187
  3. जैसे, ‘गिरधर जी भरतार’ - पद 30; ‘म्हांरो भो-भो रो भरतार’ -पद 47; अथवा ‘बांह गहे की लाज’ -पद 109

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