मीराँबाई की पदावली पृ. 18

मीराँबाई की पदावली

Prev.png
आधार स्वरूप सिद्धांत

उस ‘ऊसा’ अर्थात् ऐसे व अनुपम ‘पिया’ के प्रति तन-मन-धन सभी कुछ अर्पित कर उसे वे अपने हृदय में रख लेना चाहती हैं। उसे देख देख कर वे नेत्रों द्वारा प्रेम रस पीना चाहती हैं क्योंकि उसका मुख मंडल देखते रहने पर ही उसका सारा जीवन निर्भर है। वे उसे, जैसे भी हो वैसे ही रिझाना चाहती हैं क्योंकि वह ‘बड़भागन’ रीझा करती है।[1]उन्होंने उससे ‘रसीली भगति’ की याचना करली है और ‘सांची भगत रूप’ वाली हो गई हैं।[2]उनके भगवान् की परिभाषा कदाचित् वही है जो ‘श्रीमदभागवत’ के निम्नलिखित प्रसिद्ध श्लोक द्वारा प्रकट होती है- जैसे,


वदन्ति यत्तत्त्वविदस्तत्त्वं, मद्ज्ञानमव्ययम्।
ब्राह्मेति परमात्मेति, भगवानिति शब्दत्रते॥

अर्थात् जिस वस्तु को तत्त्वज्ञानी लोग तत्त्व, अव्यय, ज्ञान, ब्रह्म व परमात्मा नाम से अभिहित करते हैं उसी को भगवान् भी कहा जाता हे। दनका इष्टदेव, इस प्रकार, निर्गुण होता हुआ भी ‘भगवान्’ है।

रहस्यवाद

मीराँबाई द्वारा अपनाई गई साधना इसी कारण रहस्यमयी भावनाओं से भी ओतप्रोत है और उनके अनेक पदों में हमें रहस्यवाद की भी कुछ झलक दिखलाई पड़ती है। वे मूर्तिमान् सौंदर्य श्री गिरधरलाल के उक्त अनुपम व अलौकिक ‘पिया’ रूप में अपने परोक्ष ‘साहब’ की अपरोक्ष अनुभूति किया करती हैं और उनके साथ ‘तुम मोरे हूँ तोरे’[3] अथवा ‘तुम बिच हम बिच अन्तर नाहीं’[4] आदि द्वारा तादात्म्य स्थापित कर सदा आनन्दविभोर रहा करती हैं। उनके ‘पिया’ उनसे, कदाचित्, कभी भी अलग नहीं, वे सदा उनके ‘हीय बसत है’। [5] उनके हृदय में अपने इष्टदेव के प्रति एक विचित्र भावना है जो, कुछ स्पष्ट विशेषताओं के कारण धार्मिक दीख पड़ती हुई भी, नितांत व्यक्तिगत हैं। उनका ‘हरि अविनासी’ ‘सच्चा बावला’ है, अतएव, उसे भगवान् कह कर, उससे भक्ति की याचना करती हुई भी, वे, वास्तव में, यही लालसा रखती हैं कि कभी न कभी अवश्य ही उस ‘पिय के पलँगा’ पर ‘पौंढ’ कर ‘हरि रंग’ में पूर्णतः रँग जाऐंगी।[6]

उसकी ‘चाकरी’ में भी वे सदा उसके ‘दरसन’ की ही भूखी हैं; उन्हें ‘खरची’ के लिये केवल उसका ‘सुमिरण’ मात्र चाहिए और ‘जागीरी’ के लिए उसकी ‘भावभगति’ चाहिए; और ये तीनों ही ‘वाताँ’ उनके अनुसार एक से एक ‘सरसी’ हैं[7] उन्होंने उसके लिए अपना सारा शरीर जुग जुग के लिए ‘सदकै’ वा न्यौछावर कर दिया है। वे, जहाँ-जहाँ अपने ‘राम’ को ही देखती हुई, उसकी सेवा करती रहती हैं[8] और ‘जहाँ-जहाँ’ ‘धरणी पर’ पांव रखती हैं वहाँ मानों, उसके प्रेम में सदा नृत्य ही किया करती हैं[9] वे गिरधर के रंग में सदा ‘रोती’ रहती हैं। वे पचरँग का ‘चोला’ व पाँच तत्त्वों द्वारा निमित शरीर धारण कर सदा ‘झिरमिट’ वा झुरमुट मारने का खेल[10]खेला करती थीं अकस्मात् उस ‘साँवरो’ वा प्रियतम से भेंट हो गयी और, उसे अपना पूर्व परिचित जान, वे उसके साथ, ‘गाती’ वा ओढ़ी हुई चादर हटाकर, शीघ्र मिल गयीं।[11]तात्पर्य यह कि कर्मानुसार प्राप्त मानव शरीर का आवरण धारण किये हुए, जीवात्मा रूप से, वे अपना जीवनयापन कर रही थीं कि किसी समय उन्हें इस दैनिक व्यवहार के अन्तर्गत ही, परमात्मा के साथ अपने तादात्म्य का बोध हो गया और वे, उक्त काल्पनिक आवरण की भावना का परित्याग कर उसके साथ एकरूप हो गयीं। तब से उन्हें ‘सब घट’ में ‘आत्मा’ प्रत्यक्ष होने लगा।[12]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद 13
  2. पद 16
  3. पद 95
  4. पद 115
  5. पद 20
  6. पद 14
  7. पद 154
  8. पद 55
  9. पद 18
  10. जिसमें सारा शरीर इस प्रकार ढक लेते हैं जिससे जल्दी पहचान न हो सके
  11. उनके गले लग गयीं
  12. पद 158

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः