मीराँबाई की पदावली पृ. 17

मीराँबाई की पदावली

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आधार स्वरूप सिद्धांत

उनका मन गिरधरलाल में लगा है[1] और अपने चित्त पर ‘चढ़ी’ व उर में ‘अड़ी’ हुई उस ‘माधुरी मूरत’[2] के ही ‘उमरण’ व ‘सुमरण’ में वे सदा व्यस्त रहा करती हैं[3]वे उसे हरि के ‘सुभग, सीतल, कँवल, कोमल त्रिविध ज्वालाहरण चरणों’ का स्पर्श करना[4] तथा उनमें लिपट रहना तक चाहती हैं[5]आदि। वे ‘अनदेव’[6]की पूजा से मुँह मोड़कर अपने ‘परमस्नेही’ ‘गोविन्दो’ के ही अर्चन में संलग्न हैं[7] और उसी का ‘चरणामृत’ लेती व दर्शन करती हैं।[8]

वे उन्हें प्रणाम वा वन्दन करती हैं[9] और उनके ‘चरणकँवल पै सीर’ भी रखती हैं[10]तथा ‘चेरी’ होकर उनके ‘पाँयन’ पड़ तक जाती हैं।[11] वे उनके ‘ठाकुर’[12] और ‘प्रतिपल’[13] हैं और ये उनकी ‘जनम-जनम की दासी’[14]और ‘बिनमोल चेरी’ हैं।[15] सख्यभाव के अनुसार इसी प्रकार, वे ‘रैणदिना वाके संगि खेला करती हैं[16] और उनके साथ कभी कभी ‘झिरमिट’ खेलने भी जाती हैं।[17] वह उनका ‘प्रेम पियारा मीत’[18], ‘पूरब जनम का साथी’।[19]‘साँकड़ारो साथी’[20]एवं ‘जनम-मरन को’ भी साथी है जिसे देख्यां बिना उन्हें, कल नहीं पड़ती।[21] मीराँ के लिए ‘हरि’ की ‘चितवन’ ही आशारूप है और उनके लिए वे अपने प्राणों तक का ‘अँकोर’ देने को प्रस्तुत हैं।[22] ‘मरण जीवन’ दोनों उन्हीं के हाथ है। [23] अतएव जो भी उन्हें वार दिया जाय वही ‘थोरा’ होगा।[24] उन्होंने ‘उनके’ प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया है जिस कारण वे जो पहनावें उसी को पहनती हैं, जो दें उसी को खाती हैं, जहाँ बैठावें वहीं बैठती हैं तथा उनके बेचने पर बिक जाने के लिए भी तैयार हैं।[25] इष्टदेव के प्रति आत्मनिवेदन के भाव इनसे बढ़ कर और क्या होंगे ? मीराँबाई की दृष्टि में इष्टदेव के निर्गुण व सगुण रूपों में, वस्तुतः, कोई भेद नहीं है, इस कारण, जहाँ वे उससे ‘‘तुम बिच हम बिच अन्तर नाहीं, जैसे सूरजघामा’’ कहकर उसके साथ अपना तादात्म्य प्रकट करती हैं वहीं उसे, अलग रहने वाले की भाँति, अपने पास आने के लिए, निमंत्रित भी करती हैं।[26] तथा, इसी प्रकार एक ही पद में जहाँ वे उसे ‘‘तुम प्रभु पूरन ब्रह्म हो, पूरन पद दीजै हो’’ कहकर सम्बोधित करती हैं वहीं उसे, एक पंक्ति पहले ही, ‘‘तुम तजि और भतार को, मन में नहिं आने हो’’ भी कहती हुई पायी जाती हैं।[27] मीराँबाई को उस ‘प्रियतम’ के वास्तविक रूप का आध्यात्मिक रहस्य अवश्य ज्ञात है, किन्तु उनके प्रेम की तीव्र भावना उसे अमूर्त्त मानकर अपनाने नहीं देती। उनके स्त्रियोचित हृदय में निराकार के लिए, स्वभावतः, कोई स्थान नहीं। वे उसके प्रतीक स्वरूप भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की विश्वमोहिनी मूर्ति को सदा अपने सामने रखती हैं और उसी के सौंदर्य का आभास उन्हें सर्वत्र दीख पड़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद 6
  2. पद 11
  3. पद 18
  4. पद 1
  5. पद 8, 18
  6. अन्य देवताओं
  7. पद 29
  8. पद 34
  9. पद 2
  10. पद 63 व 164
  11. पद 146
  12. पद 67
  13. 65
  14. पद 101 व 104
  15. पद 62
  16. पद 17
  17. पद 20
  18. पद 61
  19. पद 124
  20. पद 186
  21. पद 186
  22. पद 5
  23. पद 76
  24. पद 145
  25. पद 17
  26. पद 115
  27. पद 129

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