मीराँबाई की पदावली पृ. 16

मीराँबाई की पदावली

Prev.png
आधार स्वरूप सिद्धांत

उनका मन ‘सुरत’ भी ‘असमानी सैल’ में रम गया है[1] और वे, गुरु ज्ञान द्वारा अपने तन का कपड़ा रँग कर तथा अपने मन की मुद्रा पहन कर, ‘निरंजण’ कहे जाने वाले के ही ध्यान में निरत रहना चाहती हैं।[2] वे कभी-कभी ‘सुरत’ वा ‘निरत’ का ‘दिवाला’ सँजोने के लिए ‘मनसा’ की ‘बाती’ बनाती हैं और ‘प्रेम हटी’ से तेल मँगा कर उसे ‘दिनराती’ जगते रहने योग्य कर देती हैं[3] तो दूसरी बार, ‘यातन’ को ही ‘दियना’ बता उसमें, ‘मनसा’ की बाती डाल देती हैं और, प्रेम का तेल उसमें भर कर, ‘दिन रात’ जलाया करती हैं तथा, ‘ज्ञान’ की ‘पाटी’ ‘रचकर’ वा ‘मति’ की ‘माँग सँवार’ कर बहुरंग की बिछी सेज पर, अपन ‘साँवरो’ का स्वागत करने के लिए ‘पंथ जोहती’ वा प्रतीक्षा किया करती हैं।[4] उन्हें ‘सील वरत’[5] के सामने दूसरा कोई भी श्रृंगार पसन्द नहीं[6] अतएव वे संसार की आशा त्याग कर ‘हरी हितु’ से 'हेत' करने और, इस प्रकार, ‘सहज’ ‘वैराग’ साधने का उपदेश देती हैं।[7]

इष्टदेव-सगुणरूप व साधना

मीराँबाई द्वारा किए गये इष्टदेव के केवल उक्त निर्गुणवत् निरूपण तथा उसकी प्राप्ति के लिए प्रयोग में आने वाली, केवल उक्त यौगिक वा मानसिक साधनाओं के आधार पर कुछ लोग उन्हें संतमत की अनुयायिनी मान लेना चाहते हैं। किन्तु ऐसा करना उचित नहीं जान पड़ता। मीराँ ने अपने अनक पदों में उक्त ‘हरि अविनासी’ को ही एक परम ऐश्वर्यशाली एवं लीलामय भगवान् के सगुण रूप में भी अंकित किया है। वे कई पदों[8] द्वारा उनके सुन्दर रूप एवं विविध मनोहारिणी चेष्टाओं का वर्णन करती हैं और बहुत पदों[9] आदि में उनकी भिन्न भिन्न लीलाओं के कतिपय संक्षिप्त विवरण भी देती हैं। उन्होंने उसके लिए कई स्थलों पर ‘भक्त वछल’[10], ‘दीनानाथ’[11], ‘दयाल’[12], ‘कृपानिधान’[13], ‘अधम[14]उधारण’ ‘सबजग तारण’ ‘कष्टनिवारण’ ‘विपति विदारण’[15] ‘तरण आयाँ कूँ तारने वाला’[16], वा ‘पतितपावन’[17], आदि के प्रयोग किये हैं और, उसके अनेक उपकारों के उल्लेख करते हुए, उससे अपने कल्याण के लिये प्रार्थना भी की है। उन्होंने उसे नारायण[18]और ‘चतुर्भुज’[19] ही नहीं बल्कि, स्पष्ट शब्दों में ‘गिरवरधारी’[20] ‘नंदनँदन’[21] ‘जसुंमति को लाल’[22]‘जदुनाथ’[23] व ‘वलवीर’[24] कह कर, उक्त सगुण भगवान् के भी कृष्णावतार को सम्बोधित किया है। इसके सिवाय उनके द्वारा प्रदर्शित साधना पद्धति के अन्तर्गत हम उनके पदों में सगुणरूप के प्रति की जाने वाली नवधा भक्ति नाम की उपासना के भी अनेक उदाहरण पाते हैं।

वे अपने इष्टदेव के गुणों को सत्संग की सहायता से सदा श्रवण किया करती हैं; वे उसके सौन्दर्य वर्णन व गुणगान करने[25] पर सदा दृढ़ रहा करती हैं और उसे रिझाने के लिये वे लोक लज्जा का परित्याग कर, ‘पग में घँघरू बाँध चुटकी दे देकर साधुओं के सामने, नाचने तक लग जाती हैं[26] इस कीर्तन के कारण लोग उन्हें ‘बावरी’ ‘मदमाती’वा ‘कुलनासी’ तक कह डालते हैं, किन्तु वे इसकी परवाह नहीं करतीं[27]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद 159
  2. पद 152
  3. पद 20
  4. पद 129
  5. शीलव्रत
  6. पद 23
  7. पद 162
  8. जैसे पद 2, 3, 6, 7, 8, 9, 10, 13, 15 आदि
  9. जैसे पद 1, 63, 132, 135
  10. पद 3
  11. पद 119
  12. पद 130
  13. पद 132
  14. 23
  15. पद 135
  16. पद 168
  17. पद 187
  18. पद 39
  19. पद 52
  20. पद2
  21. पद 9
  22. पद 6
  23. पद 6
  24. पद 123
  25. पद 23, 34, 38, व 45
  26. पद 16, 34 आदि।
  27. पद 39, 40 आदि।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः