मानस | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- मानस (बहुविकल्पी) |
मानस नामक एक पर्वत का उल्लेख हिन्दू पौराणिक ग्रंथ महाभारत में हुआ है। 'महाभारत वन पर्व' के अनुसार इसी पर्वत पर प्रजापति की पुत्री देवसेना से इन्द्र की भेंट हुई थी।
- एक बार देवराज इन्द्र मानस पर्वत पर गये। वहाँ उन्हें एक स्त्री के मुख से निकला हुआ भयंकर आर्तनाद सुनायी दिया। वह कह रही थी- "कोई वीर पुरुष दौड़कर आये और मेरी रक्षा करे। वह मेरे लिये पति प्रदान करे या स्वयं ही मेरा पति हो जाय।"
- यह सुनकर इन्द्र ने उससे कहा- "भद्रे! डरो मत। अब तुम्हें कोई भय नहीं है। ऐसा कहकर जब उन्होंने उधर दृष्टि डाली, तब केशी दानव सामने खड़ा दिखायी दिया। उसके हाथ में गदा थी और वह एक कन्या का हाथ पकड़े विविध धातुओं से विभूषित पर्वत-सा जान पड़ता था।
- यह देख इन्द्र ने उससे कहा- "रे नीच कर्म करने वाले दानव। तू कैसे इस कन्या का अपहरण करना चाहता है। समझ ले, मैं वज्रधारी इन्द्र हूँ। अब इस अबला को सताना छोड़ दे।"
- केशी दानव को वहाँ से भगाने के बाद इन्द्र ने उस कन्या से पूछा- "सुमुखि! तुम कौन हो, किसकी पुत्री हो और यहाँ क्या करती हो? कन्या बोली- देवेन्द्र! मैं प्रजापति की पुत्री हूँ। मेरा नाम देवसेना है। मेरी बहिन का नाम दैत्यसेना है, जिसे केशी ने पहले ही हर लिया था। हम दोनों बहिनें अपनी सखियों के साथ प्रजापति की आज्ञा लेकर सदा क्रीड़ाविहार के लिये इस मानस पर्वत पर आया करती थीं। पाकशासन। महान असुर केशी प्रतिदिन यहाँ आकर हम दोनों को हर ले जाने के लिये फुसलाया करता था। दैत्यसेना इसे चाहती थी। परंतु मेरा इस पर प्रेम नहीं था। अत: दैत्यसेना को तो यह हर ले गया, परंतु मैं आपके पराक्रम से बच गयी।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
महाभारत शब्दकोश |लेखक: एस. पी. परमहंस |प्रकाशक: दिल्ली पुस्तक सदन, दिल्ली |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 85 |