माध्व सम्प्रदाय


संक्षिप्त परिचय
माध्व सम्प्रदाय
मध्वाचार्य
विवरण 'माध्व सम्प्रदाय' एक वैष्णव सम्प्रदाय है। माध्व वैष्णव एक संगठित समूह में नहीं हैं बल्कि बिखरे हुए हैं।
संस्थापक मध्वाचार्य
स्थापना समय इस सम्प्रदाय की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में हुई।
सिद्धान्त विष्णु सर्वोच्च तत्त्व है, जगत सत्य है, ब्रह्म और जीव का भेद वास्तविक है, जीव ईश्वराधीन है, जीवों में तारतम्य है, आत्मा के आन्तरिक सुखों की अनुभूति ही मुक्ति है, शुद्ध और निर्मल भक्ति ही मोक्ष का साधन है, प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द तीन प्रमाण हैं, वेदों द्वारा ही हरि जाने जा सकते हैं।
विशेष मध्वाचार्य द्वारा स्थापित यह सम्प्रदाय भागवत पुराण पर आधृत होने वाला पहला सम्प्रदाय है।
संबंधित लेख मध्वाचार्य, वैष्णव सम्प्रदाय, चैतन्य महाप्रभु
अन्य जानकारी मध्वाचार्य ने जीवन की वास्तविकता समझते हुए उसे व्यावहारिक और रुचिपूर्ण बनाने का आधार अपने द्वैतवाद में प्रस्तुत किया। इनके अनुसार दो पदार्थ या तत्त्व प्रमुख हैं, जो स्वतंत्र और अस्वतन्त्र हैं।

माध्व सम्प्रदाय भारत के वैष्णव सम्प्रदायों में से एक है। माध्व वैष्णव एक संगठित समूह में नहीं हैं बल्कि बिखरे हुए हैं। उनके महत्त्वपूर्ण मन्दिर न तो वृन्दावन में हैं और न ज़िले में कहीं अन्य ही हैं। इस सम्प्रदाय के संस्थापक मध्वाचार्य दक्षिण के थे। उनका जन्म सन 1199 ई. में हुआ था। जिस मन्दिर में वे रहते थे, वह अब भी 'उडीपी' नामक स्थान में विद्यमान है। वहाँ उन्होंने एक चमत्कारपूर्ण कृष्ण की मूर्ति स्थापित की थी, जो महाभारत के योद्धा अर्जुन ने बनाई बताते हैं। यह मूर्ति द्वारका से किसी जहाज़ में रख दी गई थी और मालाबार तट पर वह टकरा गया और नष्ट हो गया था।

स्थापना

मध्वाचार्य द्वारा स्थापित यह सम्प्रदाय भागवत पुराण पर आधृत होने वाला पहला सम्प्रदाय है। इसकी स्थापना तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में हुई। मध्वाचार्य की मृत्यु के 50 वर्ष बाद जयतीर्थ इस सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य हुए। इनके भाष्य, जो मध्व के ग्रन्थों पर रचे गये हैं, सम्प्रदाय के सम्मानित ग्रन्थ हैं। चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे विष्णुपुरी नामक माध्व सन्न्यासी ने भागवत के भक्ति विषयक सुन्दर स्थलों को चुनकर 'भक्तिरत्नावली' नामक ग्रन्थ लिखा। यह भागवत भक्ति का सर्वश्रेष्ठ परिचय देता है। लोरिय कृष्णदास ने इसका बगंला में अनुवाद किया है।

प्रचार-प्रसार

एक परवर्ती माध्व सन्त ईश्वरपुरी ने चैतन्यदेव को इस सम्प्रदाय में दीक्षित किया। इस नये नेता (चैतन्य) ने माध्व मत का अपनी दक्षिण की यात्रा में अच्छा प्रचार किया (1509-11)। उन्होंने माध्वों को अपनी शिक्षा एवं भक्तिपूर्ण गीतों से प्रोत्साहित किया। इन्होंने उक्त सम्प्रदाय में सर्वप्रथम संकीर्तन एवं नगर कीर्तन का प्रचार किया। चैतन्यदेव की दक्षिण यात्रा के कुछ हि दिनों बाद कन्नड़ भाषा में गीत रचना आरम्भ हुई। कन्नड़ गायक भक्तों में मुख्य थे, पुरन्दरदास। प्रसिद्ध माध्व विद्वान व्यासराज चैतन्य के समकालीन थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे जो आज भी पठन-पाठन में प्रयुक्त होते हैं।

अठारहवीं शताब्दी में कृष्णभक्ति विषयक गीत व स्तुतियों की रचना कन्नड़ में 'तिम्मप्पदास' एवं 'मध्वदास' ने की। इसी समय चिदानन्द नामक विद्वान प्रसिद्ध कन्नड़ ग्रन्थ 'हरिभक्ति रसायन' के रचयिता हुए। मध्व के सिद्धान्तों का स्पष्ट वर्णन कन्नड़ काव्य ग्रन्थ 'हरिकथासार' में हुआ है। मध्वमत के अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद कन्नड़ी में हुआ। माध्व सन्न्यासी शंकर के दशनामी सन्न्यासियों मे ही परिगणित हैं। स्वयं मध्व एवं उनके मुख्य शिष्य तीर्थ (दसनामियों में से एक) शाखा के थे। परवर्ती अनेक माध्व 'पुरी' एवं 'भारती' शाखाओं के सदस्य हुए।

समीक्षा

इस सम्प्रदाय की पद्धति में वर्णित शाला, क्षेत्र, धाम, तीर्थ तथा इष्ट आदि से यही सिद्ध होता है कि इनका सारा ज्ञान 14 लोकों के अन्दर का है तथा इनके आराध्य विष्णु भगवान हैं। वस्तुतः वैष्णवों के चारों सम्प्रदाय क्षर-अक्षर से परे उस सच्चिदानन्द अक्षरातीत पूर्णब्रह्म के बारे में नहीं जानते हैं। ये जिस विष्णु भगवान को अपने परब्रह्म के रूप में मानते हैं, वे तो क्षर पुरुष हैं। पाताल से लेकर सात शून्य या मोह सागर तक जो कुछ है, वह स्वप्न के समान नश्वर है। ऐसा पुराण संहिता 13/53,54 में कहा गया है। ब्रह्म दर्शन की कामना से जब ब्रह्मा, विष्णु, शिव, ईश्वर और सदाशिव ध्यान द्वारा अखण्ड धाम को खोजने के प्रयास में थे, तो उनसे नाद शिव ने कहा- "हे देवगणों ! इस उन्मनी शक्ति से परे और कुछ प्रपंच नहीं है। पृथ्वी तत्त्व से लेकर उन्मनी तक जो कुछ है, वह स्वप्नमयी है और अज्ञान द्वारा ही कल्पित है। वह उन्मनी शक्ति अज्ञानमयी है और (अव्याकृत) ब्रह्म के मन की नींद रूपा है। इस प्रकार वैकुण्ठ आदि सभी लोक तथा देवी-देवता सपने के नश्वर स्वरूप वाले सिद्ध होते हैं।




टीका टिप्पणी और संदर्भ

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