माधी मन मरजाद तजी।
ज्यौ गज मत्त जानि हरि तुमसौ, बात विचारि सजी।।
माथै नही महावत सतगुरु, अकुस ज्ञानहु टूटयौ।।
धावत अधअवनी आतुर तजि, साँकर सत्सँग छूटयौ।
इद्री जूथ संग लिए विहरत, तृस्ना कानन माहि।।
क्रोध, सोच जल सौ रति मानी, काम भच्छ हित जाहि।
और अधार नहीं कछु सूझत, भ्रम गहि गुहा रह्यौ।।
‘सूर’ स्याम केहरि करुनामय, कब नहिं विरद गह्यौ।।4037।।