माखन बाल गोपालहिं भावै।
भूखे छिन न रहत मन मोहन, ताहि बदौं जो गहरु लगावै।
आनि मथानी दह्यौ बिलोवौं, जो लगि लालन उठन न पावै।
जागत ही उठि रारि करत है, नहिं मानै जौ इंद्र मनावै।
हौं यह जानति बानि स्याम की, अँखियाँ मीचे बदन चलावै।
नंद-सुवन की लगौं बलैया, यह जूठनि कछु सूरज पावै।।231।।