महा प्रभु तुम्‍हें बिरद की लाज -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग बिलावल



महा प्रभु, तुम्‍हें बिरद की लाज।
कृपा-निदान, दानि, दामौदर, सदा संवारन काज।
जब गज-चरन ग्राह गहि राख्‍यो, तबहीं नाथ पुकारयौ।
तजि कै गरुड़ चले अति आतुर, नक्र चक्र करि मारयौ।
निसि-निसि ही रिषि लिए सहस-दस-दुरबासा पग धारयौ।
ततका‍लहिं तब प्रगट भए हरि, राजा-जीव उबारयौ।
हिरनाकुस प्रहलाद भक्त कौं बहुत सासना जारयौ।
रहि न सके, नरसिंह रूप धरि, गहि कर असुर पछारयौ।
दुस्‍सासन गहि केस द्रौपदी नगन करन कौं ल्‍यायौ।
सुमिरत ही ततकाल कृपानिधि, वसन-प्रवाह बढ़ायौ।
मागधपति बहु जीति महीपति, कछु जिय मैं गरबाए।
जीत्‍यौ जरासंघ, रिपु मारयौ, बल करि भूप छुड़ाए।
महिमा अति अगाध, करुनायमय भक्त-हेत हितकारी।
सूरदास पर कृपा करौ अब, दरसन देहु मुरारी।।।109।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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