महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 3 श्लोक 21-44

तृतीय (3) अध्‍याय: स्‍वर्गारोहण पर्व

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महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व तृतीय अध्याय: श्लोक 21-44 का हिन्दी अनुवाद


अपने दूसरे भाइयों को तथा पांडव पक्ष के अन्यान्य राजाओं को देखो। वे सब अपने-अपने योग्‍य स्‍थान को प्राप्‍त हुए हैं। उन सबकी सद्गति के विषय में अब तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये। कुरुनन्दन! पहले कष्ट का अनुभव करके अब से तुम मेरे साथ रहकर रोग-शोक से रहित हो स्‍वछन्द विहार करो। तात! महाबाहु! पृथ्‍वीनाथ! अपने किये हुए पुण्‍यकर्मों को, तपस्‍या से जीते हुए लोकों का और दानों का फल भोगो। आज से देव, गन्धर्व तथा कल्‍याणस्‍वरूपा दिव्य अप्‍सराएँ स्‍वच्‍छ वस्‍त्र और आभूषणों से विभूषित हो स्‍वर्ग लोक में तुम्हारी सेवा करें। महाबाहो! राजसूय यज्ञ द्वारा जीते हुए तथा अश्वमेध यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्‍त हुए पुण्‍य लोकों को प्राप्‍त करो और अपने तप के महान फल को भोगो। कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! तुम्हें प्राप्‍त हुए सम्पूर्ण लोक राजा हरिश्चंद्र के लोकों की भाँति सब राजाओं के लोकों से ऊपर हैं; जिनमें तुम विचरण करोगे। जहाँ राजर्षि मान्धाता, राजा भगीरथ और दुष्यन्तकुमार भरत गये हैं, उन्हीं लोकों में तुम भी विहार करोगे। पार्थ! ये तीनों लोकों को पवित्र करने वाली पुण्‍यसलिला देवनदी आकाशगंगा हैं। राजेन्द्र! इनके जल में गोता लगाकर तुम दिव्य लोकों में जा सकोगे। मन्दाकिनी के इस पवित्र जल में स्नान कर लेने पर तुम्हारा मानव-स्‍वभाव दूर हो जायेगा। तुम शोक, संताप और वैरभाव से छुटकारा पा जाओगे।"

देवराज इन्द्र जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय शरीर धारण करके आये हुए साक्षात धर्म ने अपने पुत्र कौरवराज युधिष्ठिर से कहा- "महाप्राज्ञ नरेश! मेरे पुत्र! तुम्हारे धर्म विषयक अनुराग, सत्‍यभाषण, क्षमा और इन्द्रियसंयम आदि गुणों से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। राजन! यह मैंने तीसरी बार तुम्हारी परीक्षा ली थी। पार्थ! किसी भी युक्ति से कोई तुम्हें अपने स्‍वभाव से विचलित नहीं कर सकता। द्वैतवन में अरणिकाष्ठ का अपहरण करने के पश्चात जब यक्ष के रूप में मैंने तुमसे कई प्रश्न किये थे, वह मेरे द्वारा तुम्हारी पहली परीक्षा थी। उसमें तुम भली-भाँति उत्तीर्ण हो गये। भारत! फिर द्रौपदी सहित तुम्हारे सभी भाइयों की मृत्‍यु हो जाने पर कुत्ते का रूप धारण करके मैंने दूसरी बार तुम्हारी परीक्षा ली थी। उसमें भी तुम सफल हुए। अ‍ब यह तुम्हारी परीक्षा का तीसरा अवसर था; किंतु इस बार भी तुम अपने सुख की परवा न करके भाइयों के हित के लिये नरक में रहना चाहते थे, अत: महाभाग! तुम इस तरह से शुद्ध प्रमाणित हुए। तुम में पाप का नाम भी नहीं है; अत: सुखी होओ।

पार्थ! प्रजानाथ! तुम्हारे भाई नरक में रहने के योग्‍य नहीं हैं। तुमने जो उन्हें नरक भोगते देखा है, वह देवराज इन्द्र द्वारा प्रकट की हुई माया थी। तात! समस्‍त राजाओं को नरक का दर्शन अवश्‍य करना पड़ता है; इसलिये तुमने दो घड़ी तक यह महान दु:ख प्राप्‍त किया है। नरेश्वर! सव्यसांची अर्जुन, भीमसेन, पुरुषप्रवर नकुल-सहदेव अथवा सत्‍यवादी शूरवीर कर्ण- इनमें से कोई भी चिरकाल तक नरक में रहने के योग्‍य नहीं है। भरतश्रेष्ठ! राजकुमारी कृष्णा भी किसी तरह नरक में जाने योग्‍य नहीं है। आओ, त्रिभुवनगामिनी गंगा जी का दर्शन करो।"

जनमेजय! धर्म के यों कहने पर तुम्‍हारे पूर्वपितामह राजर्षि युधिष्ठिर ने धर्म तथा समस्‍त स्‍वर्गवासी देवताओं के साथ जाकर मुनिजनवन्दित परम पावन पुण्‍यसलिला देवनदी गंगा जी में स्नान किया। स्नान करके राजा ने तत्‍काल अपने मानव शरीर को त्‍याग दिया। तत्‍पश्चात दिव्‍य देह धारण करके धर्मराज युधिष्ठिर वैरभाव से रहित हो गये। मन्‍दाकिनी के जल में स्नान करते ही उनका सारा संताप दूर हो गया। तत्‍पश्चात देवताओं से घिरे हुए बुद्धिमान कुरुराज युधिष्ठिर महर्षियों के मुख से अपनी स्‍तुति सुनते हुए धर्म के साथ उस स्‍थान को गये, जहाँ वे पुरुषसिंह शूरवीर पांडव और धृतराष्ट्रपुत्र क्रोध त्‍यागकर आनन्‍दपूर्वक अपने-अपने स्‍थानों पर रहते थे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व में युधिष्ठिर का देहत्‍याग विषयक तीसरा अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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