महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 23 श्लोक 19-37

त्रयोविंश (23) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

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महाभारत: स्त्री पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 19-37 का हिन्दी अनुवाद

इन गंगानन्दन भीष्म ने रूई भरा हुआ तकिया नहीं लिया है। इन्होंने तो गाण्डीवधरी अर्जुन के दिये हुए तीन बाणों द्वारा निर्मित श्रेष्ठ तकिये को ही स्वीकार किया है। माधव! पिता की आज्ञा का पालन करते हुए महायशस्वी नैष्ठिक ब्रह्मचारी ये शांतनुनन्दन भीष्म जिनकी युद्ध में कहीं तुलना नहीं है, यहाँ सो रहे हैं। तात! ये धर्मात्मा और सर्वज्ञ हैं परलोक और इहलोक सम्बन्धी ज्ञान द्वारा सभी आध्यामिक प्रश्नों का निर्णय करने में समर्थ हैं तथा मनुष्य होने पर भी देवता के तुल्य हैं; इन्होंने अभी तक अपने प्राण धारण कर रखे हैं। जब ये शान्तनुनन्दन भीष्म भी आज शत्रुओं के बाणों से मारे जाकर सो रहे हैं तो यही कहना पड़ता है कि 'युद्ध में न कोई कुशल है, न कोई विद्वान है और न पराक्रमी ही है।' पाण्डवों के पूछने पर इन धर्मज्ञ एवं सत्यवादी शूरवीर ने स्वयं ही अपनी मृत्यु का उपाय बता दिया था। जिन्होंने नष्ट हुए कुरुवंश का पुनः उद्धार किया था, वे ही परम बुद्धिमान भीष्म इन कौरवों के साथ परास्त हो गये। माधव! इन देवतुल्य नरश्रेष्ठ देवव्रत के स्वर्गलोक में चले जाने पर अब कौरव किसके पास जाकर धर्म विषयक प्रश्न करेंगे।

जो अर्जुन के शिक्षक, सात्यकि के आचार्य तथा कौरवों के श्रेष्ठ गुरु थे, वे द्रोणाचार्य रणभूमि में गिरे हुए हैं, उन्हें भी देख लो। माधव! जैसे देवराज इन्द्र अथवा महापराक्रमी परशुराम जी चार प्रकार की अस्त्रविद्या को जानते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी जानते थे। जिनके प्रसाद से पाण्डुनन्दन अर्जुन ने दुष्कर कर्म किया है, वे ही आचार्य यहाँ मरे पड़े हैं। उन अस्त्रों ने इनकी रक्षा नहीं की। जिनको आगे रखकर कौरव पाण्डवों को ललकारा करते थे, वे ही शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य शस्त्रों से क्षत-विक्षत हो गये हैं। शत्रुओं की सेना को दग्ध करते समय जिनकी गति अग्नि के समान होती थी, वे ही बुझी हुई लपटों वाली आग के समान मरकर पृथ्वी पर पड़े हैं। माधव! युद्ध में मारे जाने पर भी द्रोणाचार्य के धनुष के साथ जुड़ी हुई मुट्ठी ढीली नहीं हुई है। दस्ताना भी ज्यों-का-त्यों दिखाई देता है, मानो वह जीवित पुरुष के हाथों हो। केशव! जैसे पूर्वकाल से ही प्रजापति ब्रह्मा से वेद कभी अलग नहीं हुए, उसी प्रकार जिन शूरवीर द्रोण से चारों वेद और सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र कभी दूर नहीं हुए, उन्हीं के बन्दीजनों द्वारा वन्दित इन दोनों सुन्दर एवं वन्दनीय चरणारविन्दों को जिनकी सैकड़ों शिष्य पूजा कर चुके हैं, गीदड़ घसीट रहे हैं।

मधुसूदन! द्रुपदपुत्र के द्वारा मारे गये द्रोणाचार्य के पास उनकी पत्नी कृपी बड़े दीनभाव से बैठी है। दुख से उसकी चेतना लुप्त सी हो गयी है। देखो, कृपी केष खोले नीचे मूँह किये रोती हुई अपने मारे गये पति शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य की उपासना पर रही है। केशव! धृष्टद्युम्न ने अपने बाणों से जिन आचार्य द्रोण का कवच छिन्न-भिन्न कर दिया है, उन्हीं के पास युद्धस्थल में वह जटाधारिणी ब्रह्मचारिणी कृपी वैठी हुई है। शोक से दीन और आतुर हुई यशस्वनी सुकुमारी कृपी समर में मारे गये पति देव का प्रेत कर्म करने की चेष्टा कर रही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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