महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 1 श्लोक 34-44

प्रथम (1) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

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महाभारत: स्त्री पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद

आप भी मध्‍यस्‍थ बनकर बैठे रहे, उसे कोई उचित सलाह नहीं दी। आप दुर्धर्ष वीर थे- आपकी बात कोई टाल नहीं सकता था, तो भी आपने दोनों ओर के बोझे को समभाव से तराजू पर रखकर नहीं तौला। ‘मनुष्‍य को पहले ही यथा योग्‍य बर्ताव करना चाहिये, जिससे आगे चलकर उसे बीती हुई बात के ‍लिये पश्चाताप न करना पड़े। ‘राजन! आपने पुत्र के प्रति आसक्ति रखने के कारण सदा उसी का प्रिय करना चाहा, इसीलिये इस समय आपको यह पश्चाताप का अवसर प्राप्‍त हुआ है; अत: अब आप शोक न करें। ‘जो केवल ऊँचे स्‍थान पर लगे हुए मधु को देखकर वहाँ से गिरने की सम्‍भावना की ओर से आँख बंद कर लेता है, वह उस मधु के लालच से नीचे गिरकर इसी तरह शोक करता है, जैसे आप कर रहे हैं। ‘शोक करने वाला मनुष्‍य अपने अभीष्ट पदार्थों को नहीं पाता है, शोकपरायण पुरुष किसी फल को नहीं हस्‍तगत कर पाता है। शोक करने वाले को न तो लक्ष्‍मी की प्राप्ति होती है और न उसे परमात्मा ही मिलता है।

‘जो मनुष्‍य स्‍वयं आग जलाकर उसे कपड़े में लपेट लेता है और जलने पर मन-ही-मन संताप का अनुभव करता है, वह बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता है। ‘पुत्रसहित आपने ही अपने लोभरुपी घी से सींचकर और वचनरुपी वायु से प्रेरित करके पार्थरूपी अग्नि को प्रज्‍जलित किया था। ‘उसी प्रज्‍जलित अग्नि में आपके सारे पुत्र पतंगों के समान पड़ गये हैं। बाणों की आग में जलकर भस्‍म हुए उन पुत्रों के लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। ‘नरेश्वर! आप को आँसुओं की धारा से भीगा हुआ मुँह लिये फिरते हैं, यह अशास्त्रीय कार्य है। विद्वान पुरुष इसकी प्रशंसा नहीं करते हैं। ‘ये शोक के आँसू आग की चिनगारियों के समान इन मनुष्‍यों को नि:संदेह जलाया करते हैं; अत: आप शोक छोड़िये और बुद्धि के द्वारा अपने मन को स्‍वयं ही सुस्थिर कीजिये’। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- शत्रुओं को संताप देने वाले जनमेजय! महात्‍मा संजय ने जब इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र को आश्वासन दिया, तब विदुर जी ने भी पुन: सन्‍त्‍वना देते हुए उनसे यह विचारपूर्ण वचन कहा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्‍तर्गत जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्‍ट्र के शोक का निवारण विषयक पहला अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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