महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-20

तृतीय (3) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

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महाभारत: स्त्री पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


विदुर जी का शरीर की अनित्‍यता बताते हुए धृतराष्ट्र को शोक त्‍यागने के लिये कहना


धृतराष्ट्र बोले- परम बुद्धिमान विदुर! तुम्‍हारा उत्तम भाषण सुनकर मेरा यह शोक दूर हो गया, तथापि तुम्‍हारे इन तात्त्विक वचनों को मैं अभी और सुनना चाहता हूँ। विद्वान पुरुष अनिष्ट के संयोग और इष्ट के वियोग से होने वाले मानसिक दु:ख से किस प्रकार छुटकारा पाते हैं?

विदुर जी ने कहा- महाराज! विद्वान पुरुष को चाहिये कि जिन-जिन साधनों में लगने से मन दु:ख अथवा सुख से मुक्त होता हो, उन्‍ही में इसे नियमपूर्वक लगाकर शान्ति प्राप्‍त करे। नरश्रेष्‍ठ! विचार करने पर यह सारा जगत अनित्‍य ही जान पड़ता है। सम्‍पूर्ण विश्‍व केले के समान सारहीन है; इसमें सार कुछ भी नहीं है। जब विद्वान-मूर्ख, धनवान और निर्धन सभी श्‍मशान भूमि में जाकर निश्चिन्‍त सो जाते हैं, उस समय उनके मांस-रहित, नाड़ियों से बँधे हुए तथा अस्थि बहुल अंगों को देखकर क्‍या दूसरे लोग वहाँ उनमें कोई ऐसा अन्‍तर देख पाते हैं, जिससे वे उनके कुल और रूप की विशेषता को समझ सकें; फिर भी वे मनुष्‍य एक दूसरे को क्‍यों चाहते हैं? इसलिये कि उनकी बुद्धि ठगी गयी है। पण्डित लोग मरण धर्मा प्राणियों के शरीरों को घर के तुल्‍य बतलाते हैं; क्‍योंकि सारे शरीर समय पर नष्ट हो जाते हैं, किंतु उसके भीतर जो एक मात्र सत्त्वस्‍वरुप आत्‍मा है, वह नित्‍य है। जैसे मनुष्‍य नये अथवा पुराने वस्त्र को उतारकर दूसरे नूतन वस्त्र को पहनने की रुचि रखता है, उसी प्रकार देहधारियों के शरीर उनके द्वारा समय-समय पर त्‍यागे और ग्रहण किये जाते हैं।

विचित्रवीर्य नन्‍दन! यदि दु:ख या सुख प्राप्‍त होने वाला है तो प्राणी उसे अपने किये हुए कर्म के अनुसार ही पाते हैं। भरतनन्‍दन! कर्म के अनुसार ही परलोक में स्‍वर्ग या नरक तथा इहलोक में सुख और दु:ख प्राप्‍त होते हैं; फिर मनुष्‍य सुख या दु:ख के उस भार को स्‍वाधीन या पराधीन होकर ढोता रहता है। जैसे मिट्टी का बर्तन बनाये जाने के समय कभी चाक पर चढ़ाते ही नष्ट हो जाता है, कभी कुछ-कुछ बनने पर, कभी पूरा बन जाने पर, कभी सूत से काट देने पर, कभी चाक से उतारते समय, कभी उतर जाने पर, कभी गीली या सूखी अवस्‍था में, कभी पकाये जाते समय, कभी आवाँ से उतारते समय, कभी पाक स्‍थान से उठाकर ले जाते समय अथवा कभी उसे उपयोग में लाते समय फूट जाता है; ऐसी ही दशा देह-धारियों के शरीरों की भी होती है। कोई गर्भ में रहते समय, कोई पैदा हो जाने पर, कोई कई दिनों का होने पर, कोई पंद्रह दिन का, कोई एक मास का तथा कोई एक या दो साल का होने पर, कोई युवावस्‍था में, कोई मध्‍यावस्‍था में अथवा कोई वृद्धावस्‍था में पहुँचने पर मृत्यु को प्राप्‍त हो जाता है। प्राणी पूर्व जन्‍म के कर्मों के अनुसार ही इस जगत में रहते और नहीं रहते हैं। जब लोक की ऐसी ही स्‍वाभाविक स्थिति है, तब आप किसलिये शोक कर रहे हैं ? राजन! नरेश्वर! जैसे क्रीड़ा के लिये पानी में तैरता हुआ कोई प्राणी कभी डूबता है और कभी ऊपर आ जाता है, इसी प्रकार इस अगाध संसार समुद्र में जीवों का डूबना और उतरना (मरना और जन्‍म लेना) लगा रहता है, मन्‍द बुद्धि मनुष्‍य ही यहाँ कर्मभोग से बँधते और कष्ट पाते हैं। जो बुद्धिमान मानव इस संसार में सत्त्वगुण से युक्त, सबका हित चाहने वाले और प्राणियों के समागम को कर्मानुसार समझने वाले हैं, वे परम गति को प्राप्‍त होते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्री पर्व के अन्‍तर्गत जलप्रदानिक पर्व में धृतराष्‍ट्र के शोक का निवारण विषयक तीसरा अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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