प्रथम (1) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
महाभारत: स्त्री पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 15-33 का हिन्दी अनुवाद
हाय! अब मैं भीष्म जी की धर्मयुक्त बात नहीं सुन सकूँगा। साँड़ के समान गर्जने वाले दुर्योधन के वीरोचित वचन भी अब मेरे कानों में नहीं पड़ सकेंगे। दु:शासन मारा गया, कर्ण का विनाश हो गया और द्रोणरुपी सूर्य पर भी ग्रहण लग गया, यह सब सुनकर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है। संजय! इस जन्म में पहले कभी अपना किया हुआ कोई ऐसा पाप मुझे नहीं याद आ रहा है, जिसका मुझ मूढ़ को आज यहाँ यह फल भोगना पड़ रहा है। अवश्य ही मैंने पूर्वजन्मों में कोई ऐसा महान पाप किया है, जिससे विधाता ने मुझे इन दु:खमय कर्मों में नियुक्त कर दिया है। अब मेरा बुढ़ापा आ गया, सारे बन्धु-बान्धवों का विनाश हो गया और दैववश मेरे सुहृदों तथा मित्रों का भी अन्त हो गया। भला, इस भूमण्डल में अब मुझसे बढ़कर महान दुखी दूसरा कौन होगा? इसलिये कठोर व्रत का पालन करने वाले पाण्डव लोग मुझे आज ही ब्रह्मलोक के खुले हुए विशाल मार्ग पर आगे बढ़ते देखें। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र जब बहुत शोक प्रकट करते हुए बारंबार विलाप करने लगे, तब संजय ने उनके शोक का निवारण करने के लिये यह बात कही- ‘नृपश्रेष्ठ राजन! आपने बडे़-बूढ़ों के मुख से वे वेदों के सिद्धान्त, नाना प्रकार के शास्त्र एवं आगम सुने हैं, जिन्हें पूर्वकाल में मुनियों ने राजा सृंजय को पुत्र-शोक से पीड़ित होने पर सुनाया था, अत: आप शोक त्याग दीजिये। ‘नरेश्वर! जब आपका पुत्र दुर्योधन जवानी के घमंड में आकर मनमाना बर्ताव करने लगा, तब आपने हित की बात बताने वाले सुहृदों के कथन पर ध्यान नहीं दिया। उसके मन में लोभ था और वह राज्य का सारा लाभ स्वयं ही भेगना चाहता था, इसलिये उसने दूसरे किसी को अपने स्वार्थ का सहायक नहीं बनाया। एक ओर धारवाली तलवार के समान अपनी ही बुद्धि से सदा काम लिया। प्राय: जो अनाचारी मनुष्य थे, उन्हीं का निरन्तर साथ किया। दु:शासन, दुरात्मा राधा पुत्र कर्ण, दुष्टात्मा शकुनि, दुर्बुद्धि चित्रसेन तथा जिन्होंने सारे जगत को शल्यमय (कण्ट का कीर्ण) बना दिया था, वे शल्य- ये ही लोग दुर्योधन के मन्त्री थे। ‘महाराज! महाबहो! भरतनन्दन! कुरुकुल के ज्ञान वृद्ध पुरुष भीष्म, गान्धारी, विदुर, द्रोणाचार्य, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य, श्रीकृष्ण, बुद्धिमान देवर्षि नारद, अमिततेजस्वी वेदव्यास तथा अन्य महर्षियों की भी बातें आपके पुत्र ने नहीं मानीं। ‘वह सदा युद्ध की ही इच्छा रखता था; इसलिये उसने कभी किसी धर्म का आदरपूर्वक अनुष्ठान नहीं किया। वह मन्दबुद्धि और अहंकारी था; अत: नित्य युद्ध-युद्ध ही चिल्लाया करता था। उसके हृदय में क्रूरता भरी थी। वह सदा अमर्ष में भरा रहने वाला, पराक्रमी और असंतोषी था (इसीलिये उसकी दुर्गति हुई है)। ‘आप तो शास्त्रों के विद्वान, मेधावी और सदा सत्य में तत्पर रहने वाले हैं। आप जैसे बुद्धिमान एवं साधु पुरुष मोह के वशीभूत नहीं होते हैं। ‘मान्यवर नरेश! आपके उस पुत्र ने किसी भी धर्म का सत्कार नहीं किया। उसने सारे क्षत्रियों का संहार करा डाला और शुत्रओं का यश बढ़ाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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