सप्तम (7) अध्याय: सौप्तिक पर्व
महाभारत: सौप्तिक पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 47-68 का हिन्दी अनुवाद
भगवान भूतनाथ के वे गण दर्शन देने मात्र से तीनों लोकों के मन में भय उत्पन्न कर सकते थे, तथापि महाबली अश्वत्थामा उन्हें देखकर तनिक भी व्यथित नहीं हुआ। तदनन्तर हाथ में धनुष लिये और गोह के चर्म के बने दस्ताने पहने हुए द्रोणकुमार ने स्वयं ही अपने आपको भगवान शिव के चरणों में भेंट चढ़ा दिया। भारत! उस आत्म-समर्पण रूपी यज्ञ में आत्मबल सम्पन्न अश्वत्थामा का धनुष ही समिधा, तीखें बाण ही कुशा और शरीर ही हविष्यरूप में प्रस्तुत हुए। फिर महाक्रोधी प्रतापी द्रोणपुत्र ने सोमदेवता संबंधी मन्त्र[1] के द्वारा अपने शरीर को ही उपहार के रूप में अर्पित कर दिया। भयंकर कर्म करने वाले तथा अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले महात्मा रुद्र देव की रौद्र कर्मों द्वारा ही स्तुति करके अश्वत्थामा हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला। अश्वत्थामा ने कहा- 'भगवन! आज मैं आंगिरस कुल में उत्पन्न हुए अपने शरीर की प्रज्वलित अग्नि में आहुति देता हूँ। आप मुझे हविष्य रूप में ग्रहण कीजिये। विश्वात्मन! महादेव! इस आपत्ति के समय आपके प्रति भक्ति भाव से अपने चित्त को पूर्ण एकाग्र करके आपके समक्ष यह भेंट समर्पित करता हूँ (आप इसे स्वीकार करें)। प्रभो! सम्पूर्ण भूत आप में स्थित हैं और आप सम्पूर्ण भूतों में स्थित है। आप में ही मुख्य-मुख्य गुणों की एकता होती है। विभो! आप सम्पूर्ण भूतों के आश्रय हैं। देव! यदि शत्रुओं का मेरे द्वारा पराभव नहीं हो सकता तो आप हविष्यरूप में सामने खड़े हुए मुझ अश्वत्थामा को स्वीकार कीजिये।' ऐसा कहकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा प्रज्ज्वलित अग्नि से प्रकाशित हुई उस वेदी पर चढ़ गया और प्राणों का मोह छोड़कर आग के बीच में बैठ गया। उसे हविष्यरूप से दोनों बाँहें ऊपर उठाये निश्चेष्ठ भाव से बैठे देख साक्षात भगवान महादेव ने हँसते हुए से कहा- 'अनायास ही महान कर्म करने वाले श्रीकृष्ण ने सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तपस्या, नियम, क्षमा, भक्ति, धैर्य, बुद्धि और वाणी के द्वारा मेरी यथोचित आराधना की है; अत: श्रीकृष्ण से बढ़कर दूसरा कोई मुझे परम प्रिय नहीं है। तात! उन्हीं का सम्मान और तुम्हारी परीक्षा करने के लिये मैंने पांचालों की सहसा रक्षा की है और बारंबार मायाओं का प्रयोग किया है। पांचालों की रक्षा करके मैंने श्रीकृष्ण का ही सम्मान किया है; परंतु अब वे काल से पराजित हो गये हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है।' महामना अश्वत्थामा से ऐसा कहकर भगवान शिव ने अपने स्वरूपभूत उसके शरीर में प्रवेश किया और उसे एक निर्मल एवं उत्तम खड्ग प्रदान किया। भगवान का आवेश हो जाने पर अश्वत्थामा पुन: अत्यन्त तेज से प्रज्ज्वलित हो उठा। उस देवप्रदत्त तेज से सम्पन्न हो वह युद्ध में और भी वेगशाली हो गया। साक्षात महादेव जी के समान शत्रुशिविर की ओर जाते हुए अश्वत्थामा के साथ-साथ बहुत से अदृश्य भूत और राक्षस भी दौड़े गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व में द्रोणपुत्र द्वारा की हुई भगवान शिव की पूजाविषयक सातवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वह मंत्र इस प्रकार है- आप्यायस्व समेतु ते विश्वत: सोम वृष्ण्यम् भवा वाजस्य संगथे।
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