पंचम (5) अध्याय: सौप्तिक पर्व
महाभारत: सौप्तिक पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 18-40 का हिन्दी अनुवाद
भीमसेन ने सम्पूर्ण राजाओं के देखते-देखते रणभूमि में गदायुद्ध करते समय दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मार गिराया था। नरश्रेष्ठ राजा दुर्योधन अकेला था और बहुत-से महारथियों ने उसे वहाँ घेर रखा था, उस दशा में भीमसेन ने उसको धराशायी किया है। टूटी जांघों वाले राजा दुर्योधन का जो विलाप मैंने सुना है और संदेशवाहक दूतों के मुख से जो समाचार मुझे ज्ञात हुआ है, वह सब मेरे मर्मस्थानों को विदीर्ण किये देता है। इस प्रकार वे सब-के-सब पापी और अधार्मिक हैं। पांचालों ने भी धर्म की मर्यादा तोड़ डाली है। इस तरह मर्यादा भंग करने वाले उन पाण्डवों और पांचालों की आप निन्दा क्यों नहीं करते हैं? पिता की हत्या करने वाले पांचालों का रात को सोते समय वध करके मैं भले ही दूसरे जन्म में कीट या पतंग हो जाऊँ, सब कुछ स्वीकार है। इस समय मैं जो कुछ करना चाहता हॅूं, उसी को पूर्ण करने के उद्देश्य से उतावला हो रहा हूँ। इतनी उतावली में रहते हुए मुझे नींद कहाँ और सुख कहाँ? इस संसार में ऐसा कोई पुरुष न तो पैदा हुआ है और न होगा ही, जो उन पांचालों के वध के लिये किये गये मेरे इस दृढ़ निश्चय को पलट दे। संजय कहते है- महाराज! ऐसा कहकर प्रतापी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा एकान्त में घोड़ों को जोतकर शत्रुओं की ओर चल दिया। उस समय भोजवंशी कृतवर्मा और शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य दोनों महामनस्वी वीरों ने उससे कहा- 'अश्वत्थामा! तुमने किसलिये रथ को जोता है? तुम इस समय कौन-सा कार्य करना चाहते हो? नरश्रेष्ठ! हम दोनों एक साथ तुम्हारी सहायता के लिये चले हैं। तुम्हारे दुख-सुख में हमारा समान भाग होगा, तुम्हें हम दोनों पर संदेह नहीं करना चाहिये।' उस समय अश्वत्थामा के पिता के वध का स्मरण करके रोष से आग बबूला हो रहा था, वह सब उसने उन दोनों से ठीक-ठीक कह सुनाया। वह बोला- 'मेरे पिता अपने तीखे बाणों से लाखों योद्धाओं का वध करके जब अस्त्र-शस्त्र नीचे डाल चुके थे, उस अवस्था में धृष्टद्युम्न ने उन्हें मारा है। अत: धर्म का परित्याग करने वाले उस पापी पांचाल राजकुमार को भी मैं उसी प्रकार पापकर्म द्वारा ही मार डालूँगा। मेरा ऐसा निश्चय है कि मेरे हाथ से पशु की भाँति मारे गये पापी पांचालराजकुमार धृष्टद्युम्न को किसी तरह भी अस्त्र-शस्त्रों द्वारा मिलने वाले पुण्यलोकों की प्राप्ति न हो। आप दोनों रथियों में श्रेष्ठ और शत्रुओं को संताप देने वाले वीर हैं। शीघ्र ही कवच बांधकर खड्ग और धनुष लेकर रथ पर बैठ जाइये तथा मेरी प्रतीक्षा कीजिये।' राजन! ऐसा कहकर अश्वत्थामा रथ पर आरूढ़ हो शत्रुओं की ओर चल दिया। कृपाचार्य और सात्वतवंशी कृतवर्मा भी उसी के मार्ग का अनुसरण करने लगे। शत्रुओं की ओर जाते समय वे तीनों तेजस्वी वीर यज्ञ में आहुति पाकर प्रज्वलित हुए तीन अग्नियों की भाँति प्रकाशित हो रहे थे। प्रभो! वे तीनों पाण्डवों और पांचालों के उस शिविर के पास गये, जहाँ सब लोग सो गये थे। शिविर के द्वार पर पहुँचकर महारथी अश्वत्थामा खड़ा हो गया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा का प्रयाणविषयक पाँचवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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