पंचदश (15) अध्याय: सौप्तिक पर्व (ऐषिक पर्व)
महाभारत: सौप्तिक पर्व: पंचदश अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद
अश्वत्थामा बोला- पाण्डवों ने अब तक जो-जो रत्न प्राप्त किये हैं तथा कौरवों ने भी यहाँ जो धन पाया है, मेरी यह मणि उन सबसे अधिक मूल्यवान है। इसे बाँध लेने पर शस्त्र, व्याधि, क्षुधा, देवता, दानव अथवा नाग किसी से भी किसी तरह का भय नहीं रहता। न राक्षसों का भय रहता है ना चोरों का। मेरी इस मणि का ऐसा अद्भुत प्रभाव है। इसलिये मुझे इसका त्याग तो किसी प्रकार नहीं करना चाहिये। परन्तु आप पूज्यपाद महर्षि मुझे जो आज्ञा देते हैं उसी का मुझे पालन करना है, अत: यह रही मणि और यह रहा मैं। किन्तु यह दिव्यास्त्र से अभिमन्त्रित की हुई सींक तो पाण्डवों के गर्भस्थ शिशुओं पर गिरेगी ही; क्योंकि यह उत्तम अस्त्र अमोघ है। भगवान! इस उठे हुए अस्त्र को मैं पुन: लौटा लेने में असमर्थ हूँ। महामुने! अत: यह अस्त्र मैं पाण्डवों के गर्भों पर ही छोड़ रहा हूँ। आपकी आज्ञा का मैं कदापि उल्लंघन नहीं करुंगा। व्यास जी ने कहा- अनघ! अच्छा, ऐसा ही करो। अब अपने मन में दूसरा कोई विचार न लाना। इस अस्त्र को पाण्डवों के गर्भों पर ही छोड़कर शान्त हो जाओ। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! व्यास जी का यह वचन सुनकर द्रोणकुमार ने युद्ध में उठे हुए उस दिव्यास्त्र को पाण्डवों के गर्भों पर ही छोड़ दिया।
इस प्रकार श्री महाभारत सौप्तिक पर्व के अंतर्गत ऐषीक पर्व में पंद्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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