पंचषष्टितम (65) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! बुद्धिमान धर्मराज के ऐसा कहते ही उस सभा में बैठे हुए बड़े-बड़े लोगों के मुख से ‘धिक्कार है, धिक्कार है’ की आवाज आने लगी। राजन् उस समय सारी सभा में हलचल मच गयी। राजाओं को बड़ा शोक हुआ। भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि के शरीर से पसीना छूटने लगा। विदुर जी तो दोनों हाथों से अपना सिर थामकर बेहोश-से हो गये। वे फुँफकारते हुए सर्प की भाँति अच्छावास लेकर मुँह नीचे किये हुए गम्भीर चिन्ता में निमग्न हो बैठे रह गये। बाह्लीक, प्रतीप के पौत्र सोमदत्त, भीष्म, संचय, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा तथा धृतराष्ट्र युयुत्सु- ये सब मुँह नीचे किये सर्पों के समान लंबी साँसें खींचते हुए अपने दोनों हाथ मलने लगे। धृतराष्ट्र मन-ही-मन प्रसन्न हो उनसे बार-बार पूछ रहे थे, ‘क्या हमारे पक्ष की जीत हो रही है?’ वे अपनी प्रसन्नता की आकृति को न छिपा सके। दु:शासन आदि के साथ कर्ण को तो बड़ा हर्ष हुआ; परंतु अन्य सभासदों की आँखों से आँसू गिरने लगे। सुबलपुत्र शकुनि ने मैंने यह भी जीत लिया, ऐसा कहकर पासों को पुन: उठा लिया। उस समय वह विजयोउल्लास से सुशोभित और मदोन्मत्त हो रहा था।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में द्रौपदीपराजय-विषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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