चतु:षष्टितम (64) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: चतु:षष्टितम अध्याय: श्लोक 11-20 का हिन्दी अनुवाद
विदुर ने कहा- राजन्! जो इस प्रकार मन के प्रतिकूल किंतु हित भरी शिक्षा देने मात्र से अपने हितैषी पुरुष को त्याग देते हैं, उनका वह बर्ताव कैसा है, यह आप साक्षी की भाँति् पक्षपातरहित होकर बताइये; क्योंकि राजाओं के चित्त द्वेष सें भरे होते हैं, इसलिये वे सामने मीठे वचनों द्वारा सान्त्वना देकर पीठ-पीछे मूसलों से आघात करवाते हैं। राजकुमार दुर्योधन! तुम्हारी बुद्धि बड़ी मन्द है। तुम अपने को विद्वान् और मुझे मूर्ख समझते हो। जो किसी पुरुष को सुहृद् के पद पर स्थापित करके फिर स्वयं ही उस पर दोषारोपण करता है, वही मूर्ख है। जैसे श्रोत्रिय के घर में दुराचारिणी स्त्री कल्याणमय अग्नि-होत्र आदि कार्यों में नहीं लगायी जा सकती, उसी प्रकार मन्द-बुद्धि पुरुष को कल्याण मार्ग पर नहीं लगाया जा सकता। जैसे कुमारी कन्या को साठ वर्ष का बूढ़ा पति नहीं पसंद था आ सकता, उसी प्रकार भरतवंश शिरोमणि दुर्योधन को निश्चय ही मेरा उपदेश रुचिकर नहीं प्रतीत होता। राजन्! यदि तुम भले-बुरे सभी कार्यों में केवल चिकनी-चुपड़ी बातें ही सुनना चाहते हो, तो स्त्रियों, मूर्खों, पडुओं तथा उसी तरह के अन्य सब मनुष्यों से सलाह लिया करो। इस संसार में सदा मन को प्रिय लगने वाले वचन बोलने-वाला महापापी मनुष्य भी अवश्य मिल सकता है; परंतु हितकर होते हुए भी अप्रिय को कहने और सुनने वाले दोनों दुर्लभ हैं। जो धर्म में तत्पर रहकर स्वामी के प्रिय-अप्रिय का विचार छोड़कर अप्रिय होने पर भी हितकर वचन बोलता है, वही राजा का सच्चा सहायक है। महाराज! जो पी लेने पर मानसिक रोगों का नाश करने वाला है, कड़वी बातों से जिसकी उत्पत्ति होती है, जो तीखा, तापदायक, कीर्तिनाशक, कठोर और दूषित प्रतीत होता है, जिसे दुष्ट लोग नहीं पी सकते तथा जो सत्यपुरुषों के पीने की वस्तु है, उस क्रोध को पीकर शान्त हो जाइये। मैं तो चाहता हूँ कि विचित्रवीर्य नन्दन धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों को सदा यश और धन दोनों प्राप्त हों, परंतु दुर्योधन! तुम जैसे रहना चाहते हो, वैसे रहो, तुम्हें नमस्कार है। ब्राह्मण लोग मेरे लिये भी कल्याण का आशीर्वाद दें। कुरुनन्दन! मैं एकाग्र हृदय से तुमसे यह बात बता रहा हूँ, विद्वान् पुरुष उन सर्पों को कुपित न करें, जो दाँतों और नेत्रों से भी विष उगलते रहते हैं (अर्थात् ये पाण्डव तुम्हारे लिये सर्पों कभी अधिक भयंकर हैं, इन्हें मत छेड़ो)'।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में विदुर के हितकारक-वचनविषयक चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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