षट्पश्चाशत्तम (56) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: षट्पश्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 16-22 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने दैव को परम दुस्तर माना और देव के प्रताप से ही उनके चित्त पर मोह छा गया। वे कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ हो गये। फिर पुत्र की बात मानकर उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही तत्पर होकर तोरण स्फटिक नामक सभा तैयार कराओ। उसमें सुवर्ण तथा वैदूर्य से जटित एक हजार खम्भे और सौ दरवाजे हों। उस सुन्दर सभा की लम्बाई और चौड़ाई एक-एक कोस की होनी चाहिये। उनकी यह आज्ञा सुनकर तेज काम करने वाले चतुर एवं बुद्धिमान सहस्रों शिल्पीे निर्भिक होकर काम में लग गये। उन्होंने शीघ्र ही वह सभा तैयार कर दी और उसमें सब तरह की वस्तुतएँ यथास्थान सजा दीं। थोडे़ ही समय में तैयार हुई उस असंख्य रत्नों से सुशोभित रमणीय एवं विचित्र सभा को अद्भुत सोने के आसनों द्वारा सजा दिया गया। तत्पश्चात विश्वस्तर सेवकों ने राजा धृतराष्ट्र- को उस सभा भवन के तैयार हो जाने की सूचना दी। तत्पश्चात विद्वान् राजा धृतराष्ट्र ने मन्त्रियों में प्रधान विदुर को आज्ञा दी कि तुम राजकुमार युधिष्ठिर के पास जाकर मेरी आज्ञा से उन्हें शीघ्र यहाँ लिवा लाओ। उनसे कहना, ‘मेरी यह विचित्र सभा अनेक प्रकार के रत्नों से जटित है। इसे बहुमूल्य शय्याओं और आसनों द्वारा सजाया गया है। युधिष्ठिर! तुम अपने भाइयों के साथ यहाँ आकर इसे देखो और इसमें सुहृदों की द्यूत क्रीड़ा प्रारम्भ हो।'
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में युधिष्ठिर के बुलाने से सम्बंध रखने वाला छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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