षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 21-33 का हिन्दी अनुवाद
राजा की ऐसी बातें सुनकर अर्जुन ने उत्तर दिया- ‘राजन्! इस भयंकर मोह में न पड़िये, यह बुद्धि को नष्ट करने वाला है। महाराज! अच्छी तरह सोच विचार कर आपको जो कल्याणप्रद जान पड़े, वह कीजिये’। तब सत्यवादी युधिष्ठिर ने अपने सब भाइयों से व्यास जी की बातों पर विचार करते हुए कहा- ‘तात! तुम लोगों का कल्याण हो, भाइयों के विनाश का कारण बनने के लिये मुझे तेरह वर्षों तक जीवित रहने से क्या लाभ? यदि जीना है तो आज से ही मेरी यह प्रतिज्ञा सुन लो- ‘मैं अपने भाइयों तथा दूसरे राजाओं से कभी कड़वी बात नहीं बोलूँगा। बन्धु बान्धओं की आज्ञा में रहकर प्रसन्नतापूर्वक उनकी मुँह माँगी वस्तुएँ लाने में संलग्र रहूँगा’। 'इस प्रकार समतापूर्ण बर्ताव करते हुए मेरा अपने पुत्रों तथा दूसरों के प्रति भेदभाव न होगा, क्यों जगत में लड़ाई झगड़े का मूल कारण भेदभाव ही है। नररत्नों! विग्रह या वैर विरोध को अपने से दूसर ही रखकर सबका प्रिय करते हुए मैं संसार में निन्दा का पात्र नहीं हो सकूँगा’। अपने बड़े भाई की वह बात सुनकर सब पाण्डव उन्हीं के हित में तत्पर हो सदा उनका ही अनुसरण करने लगे। राजन्! धर्मराज ने अपने भाईयों के साथ भरी सभा में यह प्रतिज्ञा करके देवताओं तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण किया। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! समस्त क्षत्रियों के चले जाने पर कल्याणमय मांगलिक कृत्य पूर्ण करे भाईयों से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर ने मन्त्रियों के साथ अपने उत्तम नगर में प्रवेश किया। महाराज! दुर्योधन तथा सुबलपुत्र शकुनि ये दोनों उस रमणीय सभा में ही रह गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में युधिष्ठिर प्रतिज्ञा-विषयक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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