महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 30

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 30 का हिन्दी अनुवाद


यहाँ गीत के मधुर स्वर तथा अन्य प्रकार के घोष गूँजते रहते हैं। बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं के कारण वह पुरी परम सुन्दर प्रतीत होती है। नगरों में श्रेष्ठ उस द्वारका में यशस्वी दशार्हवंशियों के महल देखकर भगवान पाकशासन इन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन महलों के ऊपर ऊँची पताकाएँ फहरा रही थीं। वे मनोहर भवन मेघों के समान जान पड़ते थे और सुवर्णमय होने के कारण अत्यन्त प्रकाशमान थे। वे मेरुपर्वत के उत्तुंग शिखरों के समान आकाश को चूम रहे थे। उन गृहों के शिखर चूने से लिपे पुते और सफेद थे। उनकी छतें सुवर्ण की बनी हुई थीं। वहाँ के शिखर, गुफा और शृंग सभी रत्नमय थे। उस पुरी के भवन सब प्रकार के रत्नों से विभूषित थे।

(भगवान ने देखा) वहाँ बड़े-बड़े महल, अटारी तथा छज्जे हैं और उन छज्जों में लटकते हुए पक्षियों के पिंजड़े शोभा पाते हैं। कितने ही यन्त्रगृह वहाँ के महलों की शोभा बढ़ाते हैं। अनेक प्रकार के रत्नों से जटित होने के कारण द्वारका के भवन विधि धातुओं से विभूषित पर्वतों के समान शोभा धारण करते हैं। कुछ गृह तो मणि के बने हैं, कुछ सुवर्ण से तैयार किये गये हैं और कुछ पार्थिव पदार्थों (ईंट, पत्थर आदि) द्वारा निर्मित हुए हैं। उन सबके निम्नभाग चूने से स्वच्छ किये गये हैं। उनके दरवाजे (खैखड-किंवाड़े) जाम्बूनद सुवर्ण के बने हैं और अर्गलाएँ (सिटकनियाँ) वैदूर्यमणि तैयार की गयी हैं। उन गृहों का स्पर्श सभी ऋतुओं में सुख देने वाला है। वे सभी बहुमूल्य सामानों से भरे हैं। उनकी समतल भूमि, गुफा और शिखर सभी अत्यन्त मनोहर हैं। इससे उन भवनों की शोभा विचित्र पर्वतों के समान जान पड़ती है। उन गृहों में पाँच रंगों के सुवर्ण मढ़े गये हैं। उनसे जो बहुरंगी आभा फैलती है, वह फलझड़ी सी जान पड़ती है। उन गृहों से मेघ की गम्भीर गर्जना के समान शब्द होते रहते हैं। वे देखने में अनेक वर्णों के बादलों के समान जान पड़ते हैं।

विश्वकर्मा के बनाये हुए वे (ऊँचे और विशाल) भवन महेन्द्र पर्वत के शिखरों की शोभा धारण करते हैं। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो वे आकाश में रेखा खींच रहे हों। उनका प्रकाश चन्द्रमा और सूर्य से भी बढ़कर है। जैसे भोगवती गंगा प्रचण्ड नागगणों से भरे हुए भयंकर कुण्डों से सुशोभित होती है, उसी प्रकार द्वारकापुरी दशार्हकुल के महान् सौभाग्यशाली पुरुषों से भरे हुए उपर्युक्त भवन रूपी हृदों के द्वारा शोभा पा रही है। जैसे आकाश मेघों की घटा से आच्छादित होता है, उसी प्रकार द्वारकापुरी मनोहर भवनरूपी मेघों से अलंकृत दिखायी देती है। ये भगवान श्रीकृष्ण ही वहाँ इन्द्र एवं पर्जन्य (प्रमुख मेघ) के समान है। वृष्णिवंशी युवक मतवाले मयूरों के समान उन भवनरूपी मेघों को देखकर हर्ष से नाच उठते हैं। सहस्रों स्त्रियों की कान्ति विद्युत की प्रभा के समान उनमें व्याप्त है। जैसे मेघ कृष्णध्वज (अग्रि या सूर्य किरण) के उपबाह्य (आधेय अथवा कार्य) हैं, उसी प्रकार द्वारका के भवन भी कृष्णध्वज से विभूषित उपहबाह्य (वाहनों) से सम्पन्न हैं। यदुवंशियों के विविध प्रकार के अस्त्र शस्त्र उन मेघ सदृश महलों में इन्द्रधनुष की बहुरंगी छटा छिटकाते हैं। भारत! देवाधिदेव भगवान श्रीकृष्ण का भवन, जिसे साक्षात विश्वकर्मा ने अपने हाथों बनाया है, चार योजन लम्बा और उतना ही चौड़ा दिखायी देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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