अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 29 का हिन्दी अनुवाद
पाण्डवश्रेष्ठ! इसी प्रकार उत्तरदिशा में मन्दराचल के सदृश श्वेत वर्णवाला वेणुमन्त पर्वत शोभायमान था। रैवतक पर्वत के पास चित्रकम्बल के से वर्ण वाले पांचजन्य वन तथा सर्वर्तुक वन की भी बड़ी शोभा होती थी। लतावेष्ट पर्वत के चारों ओर मेरुप्रभ नामक महान् वन, तालवन तथा कमलों से सुशोभित पुष्पक वन शोभा पा रहे हैं। सुकक्ष पर्वत को चारों ओर से घेरकर चित्रपुष्प नामक महावन, शतपत्र वन, करवीरवन और कुसुकम्भिवन सुशोभित होते हैं। वेणुमन्त पर्वत के सब ओर चैत्ररथ, नन्दन, रमण और भावन नामक महान् वन शोभा पाते हैं। भारत! महात्मा केशव की उस पुरी में पूर्वदिशा की ओर एक रमणीय पुष्करिणी शोभा पाती है, जिसका विस्तार सौ धनुष हैं। पचास दरवाजों से सुशोभित और सब ओर से प्रकाशमान उस सुरम्य महापुरी द्वारका में श्रीकृष्ण ने प्रवेश किया। वह कितनी बड़ी है, इसका कोई माप नहीं था। उसकी ऊँचाई भी बहुत अधिक थी। वह पुरी चारों ओर अत्यन्त अगाध जलराशि से घिरी हुई थी। सुन्दर-सुन्दर महलों से भरी हुई द्वारका श्वेत अट्टालिकाओं से सुशोभित होती थी। तीखे यंत्र, शतघ्नी, विभिन्न यंत्रों के समुदाय और लोहे के बने हुए बड़े बड़े चक्रों से सुरक्षित द्वारकापुरी को भगवान ने देखा। देवपुरी की भाँति उसकी चहारदीवारी के निकट क्षुद्र घण्टिकाओं से सुशोभित आठ हजार रथ शोभा पाते थे, जिनमें पताकाएँ फहराती रहती थीं। द्वारकापुरी की चौड़ाई आठ योजन है एवं लम्बाई बारह योजन है अर्थात वह कुल 16 योजन विस्तृत है। उसका उपनिवेश (समीपस्थ प्रदेश) उससे दुगुना अर्थात् 192 योजन विस्तृत है। वह पुरी सब प्रकार से अविचल है। श्रीकृष्ण ने उस पुरी को देखा। उसमें जाने के लिये आठ मार्ग हैं, बड़ी-बड़ी ड्योढ़ियाँ हैं और सोलह बड़े बड़े चौराहे हैं। इस प्रकार विभिन्न मार्गों से परिष्कृत द्वारकापुरी साक्षात् शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनायी गयी है। व्यूहों के बीच-बीच में मार्ग बने हैं, सात बड़ी बड़ी सड़कें हैं। साक्षात् विश्वकर्मा ने इस द्वारका नगरी का निर्माण किया है। सोने और मणियों की सीढ़ियों से सुशोभित यह नगरी जन जन को हर्ष प्रदान करने वाली है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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