अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 21 का हिन्दी अनुवाद
राजन्! धनुर्वेद के श्रेष्ठ आचार्य सान्दीपनि के पास जाकर उन दोनों ने प्रणाम किया। सान्दीपनि ने उन्हें सत्कारपूर्वक अपनाया एवं वे फिर अवन्ती में विचरते हुए वहाँ रहने लगे। पचास दिन रात में ही उन दोनों ने दस अंगों से युक्त, सुप्रतिष्ठित एवं रहस्य सहित सम्पूर्ण धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन दोनों भाईयों को अस्त्र विद्या में निपुण देखकर विप्रवर सान्दीपनि ने उन्हें गुरुदक्षिणा देने की आज्ञा दी। सान्दीपनि जी सब विषयों के विद्वान् थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से अपने अभीष्ट मनोरथ की याचना इस प्रकार की। सान्दीपनि जी बोले- मेरा पुत्र इस समुद्र में नहा रहा था, उस समय ‘तिमि’ नामक जलजन्तु उसे पकड़ कर भीतर ले गया और उसके शरीर को खा गया। तुम दोनों का भला हो। मेरे उस मरे हुए पुत्र को जीवित करके यहाँ ला दो। भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इतना कहते-कहते गुरु सान्दीपनि पुत्रशोक से आर्त हो गये। यद्यपि उनकी माँग बहुत कठिन थीं, तीनों लोकों में दूसरे किसी पुरुष के लिये इस कार्य का साधन करना असम्भव था, तो भी श्रीकृष्ण ने उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कर ली। भरतश्रेष्ठ! जिसने सान्दीपनि के पुत्र को मारा था, उस असुर को उन दोनों भाइयों ने युद्ध करके समुद्र में मार गिरया। तदनन्तर अमिततेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण के कृपा प्रसाद से सान्दीपनि का पुत्र, जो दीर्घ काल से यमलोक में जा चुका था, पुन: पूर्ववत् शरीर धारण करके जी उठा। वह अशक्य, अचिन्तय और अत्यन्त अद्भुत कार्य देखकर सभी प्राणियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। बलराम और श्रीकृष्ण ने अपने गुरु को सब प्रकार के ऐश्वर्य, गाय, घोड़े और प्रचुर धन सब कुछ दिये। तत्पश्चात गुरुपुत्र को लेकर भगवान ने गुरु जी को सौंप दिया। उस पुत्र को आया देख सान्दीपनि के नगर के लोग यह मान गये कि श्रीकृष्ण के द्वारा यह ऐसा कार्य सम्पन्न हुआ है, जो अन्य सब लोगों के लिये असम्भव और अचिन्तय है। भगवान नारायण के सिवा दूसरा कौन ऐसा पुरुष है, जो इस अद्भुत कार्य को सोचा भी सके (करना तो दूर की बात है)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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