षट्त्रिंश (36) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 15-32 का हिन्दी अनुवाद
जनमेजय! तत्पश्चात भीष्म जी ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा- ‘भरतकुलभूषण युधिष्ठिर! अब तुम यहाँ पधारे हुए राजाओं का यथायोग्य सत्कार करो। आचार्य, ऋत्विज, सम्बन्धी, स्नातक, प्रिय मित्र तथा राजा- इन छहों को अर्घ्य देकर पूजने योग्य बताया गया है। ये यदि एक वर्ष बिताकर अपने यहाँ आवें तो इनके लिये अर्घ्य निवेदन करके इनकी पूजा करनी चाहिये, ऐसा शास्त्रज्ञ पुरुषों का कथन है। ये सभी नरेश हमारे यहाँ सुदीर्यकाल के पश्चात पधारे हैं। इसलिये राजन्! तुम बारी-बारी से इन सबके लिये अर्घ्य दो और इन सबमें जो श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली हो, उसको सबसे पहले अर्घ्य समर्पित करो’। युधिष्ठिर ने पूछा- कुरुनन्दन पितामह! इन समागत नरेशों में किस एक को सबसे पहले अर्घ्य निवेदन करना आप उचित समझते हैं? यह मुझे बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं- तब महापराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म ने अपनी बुद्धि से निश्चय करके भगवान श्रीकृष्ण को ही भूमण्डल में सबसे अधिक पूजनीय माना। भीष्म ने कहा- 'कुन्तीनन्दन! ये भगवान श्रीकृष्ण इन सब राजाओं के बीच में अपने तेज, बल और पराक्रम से उसी प्रकार देवीप्यमान हो रहे हैं, जैसे ग्रह नक्षत्रों में भुवन भास्कर भगवान सूर्य। अन्धकारपूर्ण स्थान जैसे सूर्य का उदय होने पर ज्योति से जगमग हो उठता है और वायुहीन स्थान जैसे वायु के संचार से सजीव सा हो जाता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा हमारी यह सभा आह्वादित और प्रकाशित हो रही है (अत: ये ही अग्रपूजा के योग्य हैं)।' भीष्म की आज्ञा मिल जाने पर प्रतापी सहदेव ने वृष्णिकुलभूषण भगवान श्रीकृष्ण को विधिपूर्वक उत्तम अर्घ्य निवेदन किया। श्रीकृष्ण ने शास्त्रीय विधि के अनुसार वह अर्घ्य स्वीकार किया। वसुदेवनन्दन भगवान श्रीहरि की वह पूजा राजा शिशुपाल नहीं सह सका। महाबली चेदिराज भरी सभा में भीष्म और धर्मराज युधिष्ठिर को उलाहना देकर भगवान वासुदेव पर आक्षेप करने लगा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरण पर्व में श्रीकृष्ण को अर्घ्यदानविषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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