महाभारत सभा पर्व अध्याय 28 भाग 5

अष्टाविंश (28) अध्‍याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टाविंश अध्याय: भाग 5 का हिन्दी अनुवाद


हाँ से आगे बढ़कर पाकशासनपुत्र पाण्डव अर्जुन ने उत्तर कुरुवर्ष में पहुँचकर उस देश को जीतने का विचार किया। इतने ही में महापराक्रमी अर्जुन के पास बहुत से विशालकाय महाबली द्वारपाल आ पहुँचे और प्रसन्नतापूर्वक बोले- ‘पार्थ! इस नगर को तुम किसी तरह जीत नहीं सकते। कल्याणस्वरूप अर्जुन! यहाँ से लौट जाओ। अच्युत! तुम यहाँ तक आ गये, यही बहुत हुआ। जो मनुष्य इस नगर में प्रवेश करता है, निश्चय ही उसकी मृत्यु हो जाती है। वीर! हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। यहाँ तक आ पहुँचना ही तुम्हारी बहुत बड़ी विजय है। अर्जुन! यहाँ कोई जीतने योग्य वस्तु नहीं दिखायी देती। यह उत्तर कुरुदेश है। यहाँ युद्ध नहीं होता है। कुन्तीकुमार! इसके भीतर प्रवेश करके भी तुम यहाँ कुछ देख नहीं सकोगे, क्योंकि मानव शरीर से यहाँ की कोई वस्तु देखी नहीं जा सकती। भरत कुलभूषण! यदि यहाँ तुम युद्ध के सिवा और कोई काम करना चाहते हो तो बताओ, तुम्हारे कहने से हम स्वयं ही उस कार्य को पूर्ण कर देंगे’।

राजन्! तब अर्जुन ने उनसे हँसते हुए कहा- ‘मैं अपने भाई बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर को समस्त भूमण्डल का एक मात्र चक्रवर्मी सम्राट बनाना चाहता हूँ। आप लोगों का देश यदि मनुष्यों के विपरीत पड़ता है तो मैं इसमें प्रवेश नहीं करूँगा। महाराज युधिष्ठिर के लिये कर के रूप में कुछ धन दीजिये’। तब उन द्वारपालों ने अर्जुन को कर के रूप में बहुत से दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा दिव्य रेशमी वस्त्र एवं मृगचर्म दिये। इस प्रकार पुरुषसिंह अर्जुन ने क्षत्रिय राजाओं तथा लुटेरों के साथ बहुत सी लड़ाईयाँ लड़ीं और उत्तर दिशा पर विजय प्राप्त की। राजाओं को जीतकर उनसे कर लेते और उन्हें फिर अपने राज्य पर ही स्थापित कर देते थे। राजन! वे वीर अर्जुन सबसे धन और भाँति-भाँति के रत्न लेकर तथा भेंट में मिले हुए वायु के समान वगे वाले तित्तिरि? कल्माष, सुग्गापंखी एवं मोर सदृश सभी घोड़ों को सा लिये और विशाल चतुरंगिणी सेना से घिरे हुए फिर अपने उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थ में लौट आये? तीतर के समान चितकबरे रंग वाले। पार्थ ने घोड़ों सहित वह सारा धन धर्मराज को सौंप दिया और उनकी आज्ञा लेकर, वे महल में चले गये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत दिग्विजयपर्व में अर्जुन की उत्तर दिशा पर विजय विषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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