अष्टाविंश (28) अध्याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टाविंश अध्याय: भाग 5 का हिन्दी अनुवाद
राजन्! तब अर्जुन ने उनसे हँसते हुए कहा- ‘मैं अपने भाई बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर को समस्त भूमण्डल का एक मात्र चक्रवर्मी सम्राट बनाना चाहता हूँ। आप लोगों का देश यदि मनुष्यों के विपरीत पड़ता है तो मैं इसमें प्रवेश नहीं करूँगा। महाराज युधिष्ठिर के लिये कर के रूप में कुछ धन दीजिये’। तब उन द्वारपालों ने अर्जुन को कर के रूप में बहुत से दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा दिव्य रेशमी वस्त्र एवं मृगचर्म दिये। इस प्रकार पुरुषसिंह अर्जुन ने क्षत्रिय राजाओं तथा लुटेरों के साथ बहुत सी लड़ाईयाँ लड़ीं और उत्तर दिशा पर विजय प्राप्त की। राजाओं को जीतकर उनसे कर लेते और उन्हें फिर अपने राज्य पर ही स्थापित कर देते थे। राजन! वे वीर अर्जुन सबसे धन और भाँति-भाँति के रत्न लेकर तथा भेंट में मिले हुए वायु के समान वगे वाले तित्तिरि? कल्माष, सुग्गापंखी एवं मोर सदृश सभी घोड़ों को सा लिये और विशाल चतुरंगिणी सेना से घिरे हुए फिर अपने उत्तम नगर इन्द्रप्रस्थ में लौट आये? तीतर के समान चितकबरे रंग वाले। पार्थ ने घोड़ों सहित वह सारा धन धर्मराज को सौंप दिया और उनकी आज्ञा लेकर, वे महल में चले गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत दिग्विजयपर्व में अर्जुन की उत्तर दिशा पर विजय विषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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