सप्तदश (17) अध्याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद
उन श्रेष्ठ नरेश ने बहुत-से मांगलिक कृत्य, होम और पुत्रेष्टि यज्ञ कराये, तो भी उन्हें वंश की वृद्धि करने वाले पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन उन्होंने सुना कि गौतम गौत्रीय महात्मा काक्षीवान् के पुत्र परम उदार चण्डकौशिक मुनि तपस्या से उपरत होकर अकस्मात् इधर आ गये हैं और एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। यह समाचार पाकर राजा बृहद्रथ अपनी दोनों पत्नियों (एवं पुरवासियों) के साथ उनके पास गये तथा सब प्रकार के रत्नों (मुनिजनोचित उत्कृष्ट वस्तृओं) की भेंट देकर उन्हें संतुष्ट किया। महर्षि ने भी यथोचित बर्ताव द्वारा बृहद्रथ को प्रसन्न किया। उन महात्मा की आज्ञा पाकर राजा उनके निकट बैठे। उस समय ब्रह्मर्षि चण्डकौशिक ने उन से पूछा- ‘राजन्! अपनी दोनों पत्नियों और पुरवासियों के साथ यहाँ तुम्हारा आगमन किस उद्देश्य से हुआ है?’ तब राजा ने मुनि से कहा- ‘भगवान्! मेरे कोई पुत्र नहीं है। मुनि श्रेष्ठ! लोग कहते हैं कि पुत्रहीन मनुष्य का जन्म व्यर्थ है। इस बुढ़ापे में पुत्र हीन रहकर मुझे राज्य से क्या प्रयोजन है? इसलिये अब मैं दोनों पत्नियों के साथ तपोवन रहकर तपस्या करूँगा। मुने! संतानहीन मनुष्य को न तो इस लोक में कीर्ति प्राप्त होती है और न परलोक में अक्षय स्वर्ग ही प्राप्त होती है।’ राजा के ऐसा कहने पर महर्षि को दया आ गयी। तब धैर्य से सम्पन्न और सत्यवादी मुनिवर चण्डकौशिक ने राजा बृहद्रथ से कहा- ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजेन्द्र! मैं तुम पर संतुष्ट हूँ। तुम इच्छानुसार वर माँगो।’ यह सुनकर राजा बृहद्रथ अपनी दोनों रानियों के साथ मुनि के चरणों में पड़ गये और पुत्र दर्शन से निराश होने के कारण नेत्रों से आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी में बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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