महाभारत सभा पर्व अध्याय 14 श्लोक 53-70

चतुर्दश (14) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 53-70 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! हम जरासंध के अपराधी हैं, अतः शक्तिशाली होते हुए भी जिस स्थान से हमारा सम्बन्ध था, उसे छोड़कर गोमान् (रैवतक) पर्वत के आश्रम में आ गये हैं। रैवतक दुर्ग की लम्बाई तीन योजन की है। एक-एक योजन पर सेनाओं के तीन-तीन दलों की छावनी है। प्रत्येक योजन के अन्त में सौ-सौ द्वार हैं, जो सेनाओं से सुरक्षित हैं। वीरों का पराक्रम ही उस गढ़ का प्रधान फाटक है। युद्ध में उन्मत्त होकर पराक्रम दिखाने वाले अठारह यादववंशी क्षत्रियों से वह दुर्ग सुरक्षित है। हमारे कुल में अठाहर हजार भाई हैं। आहुक के सौ पुत्र हैं, जिन में से एक-एक देवताओं के समान पराक्रमी हैं। अपने भाई के साथ चारूदेष्ण, चक्रदेव, सात्यकि, मैं, बलराम जी, साम्ब और प्रद्युम्न- ये सात अतिरथी वीर हैं।

राजन्! अब मुझ से दूसरों का परिचय सुनिये। कृतवर्मा, अनाधृष्टि, समीक, समितिंजय, कंक, शंकु और कुन्ति ये सात महारथी हैं। अन्धक भोज के दो पुत्र और बूढ़े राजा उग्रसेन को भी गिन लेने पर उन महारथियों की संख्या दस हो जाती है। ये सभी वीर वज्र के समान सुदृढ़ शरीर वाले, पराक्रमी और महारथी हैं, जो मध्यदेश का स्मरण करते हुए वृष्णिकुल में निवास करते हैं। वितदु, झल्लि, बभ्रु, उद्धव, विदूरथ, वसुदेव तथा उग्रसेन- ये सात मुख्यमन्त्री हैं। प्रसेनजित् और सत्राजित् -ये दोनों जुड़वे बन्धु कुबेरेपम सद्गुणों से सुशोभित हैं। उन के पास जो ‘स्यमन्तक’ नामक मणि है, उस से प्रचुर मात्रा में सुवर्ण झरता रहता है। भरतवंशशिरोमणे! आप सदा ही सम्राट के गुणों से युक्त हैं। अतः भारत! आप को क्षत्रिय समाज में अपने को सम्राट बना लेना चाहिये। दुर्योधन, भीष्म, द्रोण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शिशुपाल, रुक्मी, धनुर्धर एकलव्य, द्रुम, श्वेत, शैब्य तथा शकुनि- इन सब वीरों को संग्राम में जीते बिना आप कैसे वह यज्ञ कर सकते हैं? परंतु ये नरश्रेष्ठ आप का गौरव मानकर युद्ध नहीं करेंगे। किंतु राजन्! मेरी सम्मति यह है कि जब तक महाबली जरासंध जीवित है, तब तक आप राजसूय यज्ञ पूर्ण नहीं कर सकते। उसने सब राजाओं को जीतकर गिरिव्रज में इस प्रकार कैद कर रखा है, मानो सिंह ने किसी महान् पर्वत की गुफा में बड़े-बड़े गजराजाओं को रोक रखा हो।

शत्रुदमन! राजा जरासंध ने उमावल्लभ महात्मा महादेव जी की उग्र तपस्या के द्वारा आराधना करके एक विशेष प्रकार की शक्ति प्राप्त कर ली है; इसीलिये वे सभी राजा उससे परास्त हो गये हैं। वह राजाओं की बलि देकर एक यज्ञ करना चाहता है। नृपश्रेष्ठ! वह अपनी प्रतिज्ञा प्रायः पूरी कर चुका है। क्योंकि उसने सेना के साथ आये हुए राजाओं को एक-एक करके जीता है और अपनी राजधानी में लाकर उन्हें कैद करके राजाओं का बहुत बड़ा समुदाय एकत्र कर लिया है। महाराज! उस समय हम भी जरासंध के भय से पीड़ित हो मथुरा को छोड़कर द्वारका पुरी में चले गये (और अब तक वहीं निवास करते हैं)। राजन्! यदि आप इस यज्ञ को पूर्ण रूप से सम्पन्न करना चाहतें हैं तो उन कैदी राजाओं को छुड़ाने और जरासंध को मारने का प्रयत्न कीजिये। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ कुरुनन्दन! ऐसा किये बिना राजसूय यज्ञ का आयोजन पूर्णरूप से सफल न हो सकेगा। भरतश्रेष्ठ! आप जरासंध के वध का उपाय सोचिये। उसके जीत लिये जाने पर समस्त भूपालों की सेनाओं पर विजय प्राप्त हो जायगी। निष्पाप नरेश! मेरा मत तो यही है, फिर आप जैसा उचित समझें, करें। ऐसी दशा में स्वयं हेतु और युक्तियों द्वारा कुछ निश्चय करके मुझे बताइये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत राजसूयारम्भ पर्व में श्रीकृष्णवाक्य-विषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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