महाभारत सभा पर्व अध्याय 13 श्लोक 17-32

त्रयोदश (13) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: त्रयोदश अध्याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद


राजा युधिष्ठिर की ख्याति सर्वत्र फैल रही थी। सभी सद्गुण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। वे शीत एवं उष्ण आदि सभी द्वन्द्वों को सहने में समर्थ तथा अपने राजोचित गुणों से सर्वत्र सुशोभित होते थे। राजन्! दसों दिशाओं में प्रकाशित होने वाले वे महायशस्वी सम्राट जिस देश पर अधिकार जमाते, वहाँ ग्वालों से लेकर ब्राह्मणों तक सारी प्रजा उन के प्रति पिता-माता के समान भाव रखकर प्रेम करने लगती थी। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने उस समय अपने मन्त्रियों और भाइयों को बुलाकर उन से बार-बार पूछा- ‘राजसूय यज्ञ के सम्बन्ध में आप लोगों की क्या सम्मति है?’ इस प्रकार पूछे जाने पर उन सब मन्त्रियों ने एक साथ यज्ञ की इच्छा वाले परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर से उस समय यह अर्थयुक्त बात कही- ‘महाराज! राजसूय यज्ञ के द्वारा अभिषिक्त होने पर राजा वरुण के गुणों को प्राप्त कर लेता है; इसलिये प्रत्येक नरेश उस यज्ञ के द्वारा सम्राट के समस्त गुणों को पाने की अभिलाषा रखता है।

कुरुनन्दन! आप तो सम्राट के गुणों को पाने के सर्वथा योग्य हैं; अतः आप के हितैषी सुहृद आप के द्वारा राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान का यह उचित अवसर प्राप्त हुआ मानते हैं। उस यज्ञ का समय क्षत्रसम्पत्ति यानि सेना आदि के अधीन है। उसमें उत्तम व्रत का आचरण करने वाले ब्राह्मण सामवेद के मन्त्रों द्वारा अग्नि की स्थापना के लिये छः अग्नि वेदियों- का निर्माण करते हैं। जो उस यज्ञ का अनुष्ठान करता है, वह ‘दर्वीहोम’ (अग्निहोत्र आदि) से लेकर समस्त यज्ञों के फल को प्राप्त कर लेता है एवं यज्ञ के अन्त में जो अभिषेक होता है, उससे वह यज्ञकर्ता नरेश ‘सर्वजित् सम्राट्’ कहलाने लगता है। महाबाहो! आप उस यज्ञ के सम्पादन में समर्थ हैं। हम सब लोग आप की आज्ञा के अधीन हैं। महाराज! आप शीघ्र ही राजसूय यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे। अतः किसी प्रकार का सोच-विचार न करके आप राजसूय के अनुष्ठान में मन लगाइये।’

इस प्रकार उनके सभी सुहृदों ने अलग-अलग और सम्मिलित होकर अपनी यही सम्मति प्रकट की। प्रजानाथ! शत्रुसूदन पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने उनका यह साहसपूर्ण, प्रिय एवं श्रेष्ठ वचन सुनकर उसे मन-ही-मन ग्रहण किया। भारत! उन्होंने सुहृदों का वह सम्मतिसूचक वचन सुनकर तथा यह भी जानते हुए कि राजसूय यज्ञ अपने लिये साध्‍य है। उस के विषय में बारम्बार मन-ही-मन विचार किया। फिर मन्त्रणा का महत्त्व जानने वाले बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, महात्मा ऋत्विजों, मन्त्रियों तथा धौम्य एवं व्यास आदि महर्षियों के साथ इस विषय पर पुनः विचार करने लगे।

युधिष्ठिर ने कहा- महात्माओ! राजसूय नामक उत्तम यज्ञ किसी सम्राट् के ही योग्य है, तो भी मैं उस के प्रति श्रद्धा रखने लगा हूँ; अतः आप लोग बताइये, मेरे मन में जो यह राजसूय यज्ञ करने की अभिलाषा हुई है, कैसी है? वैशम्पायन जी कहते हैं- कमलनयन जनमेजय! राजा के इस प्रकार पूछने पर वे सब लोग उस समय धर्मराज युधिष्ठिर से यों बोले- ‘धर्मज्ञ! आप राजसूय महायज्ञ करने के सर्वथा योग्य हैं।’ ऋत्विजों तथा महर्षियों जब राजा युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा, तब उनके मन्त्रियों और भाइयों ने उन महात्माओें के वचन का बड़ा आदर किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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