महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 9 श्लोक 21-37

नवम (9) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद


भिक्षा थोड़ी मिली या स्वादहीन मिली, इसका विचार न करके उसे पा लूंगा। मिल गया तो ठीक है, न मिलने की दशा में क्रमशः सात घरों में जाऊँगा, आठवें में नहीं जाऊँगा। जब घरों में धुआं निकलना बंद हो गया हो, मूसल रख दिया गया हों, परोसी हुई थाली की इधर-उधर ले जाने का काम समाप्त हो गया हो और भिखमंगे भिक्षा लेकर लौट गये हों, ऐसे समय मैं एक ही वक्त भिक्षा के लिये दो, तीन या पाँच घरों तक जाया करूंगा। सब ओर से स्नेह का बन्धन तोड़कर इस पृथ्वी पर विचरता रहूँगा। कुछ मिले या न मिले, दोनों ही अवस्था में मेरी दृष्टि समान होगी। मैं महान् तप में संलग्न रहकर ऐसा कोई आचरण नहीं करूँगा, जिसे जीने या मरने की इच्छा वाले लोग करते हैं। न तो जीवन का अभिनन्दन करूंगा, न मृत्यु से द्वेष। यदि एक मनुष्य मेरी एक बाह को बसूले से काटता हो और दूसरा दूसरी बाह को चन्दनमिश्रित जल से खींचता हो तो न पहले का अमंगल सोचूंगा और न दूसरे की मंगलकामना करूंगा। उन दोनों के प्रति समान भाव रखूँगा। जीवित पुरुष के द्वारा जो कोई भी अभ्युदयकारी कर्म किये जा सकते हैं, उन सबका परित्याग करके केवल शरीर-निर्वाह के लिये पलकों के खोलने-मींचने या खाने-पीने आदि के कार्य में ही प्रवृत्त हो सकूंगा।

इन सब कार्यों में भी आसक्त नहीं होऊँगा। सम्पूर्ण इन्द्रियों के व्यापारों से उपरत होकर मन को संकल्पशून्य करके अन्तःकरण का सारा मल धो डालूँगा। सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त रहकर स्नेह के सारे बन्धनों को लांघ जाऊँगा। किसी के अधीन न रहकर वायु के समान सर्वत्र विचारूंगा। इस प्रकार वीतराग होकर विचरने से मुझे शाश्रवत संतोष प्राप्त होगा। अज्ञान वश तृष्णा ने मुझसे बडे़-बड़े पाप करवाये हैं। कुछ मनुष्य शुभाशुभ कर्म करके कार्य-कारण से अपने साथ जुड़े हुए स्वजनों का भरण-पोषण करते हैं। फिर आयु के अन्त में जीवात्मा इस प्राणशून्य शरीर को त्यागकर पहले के किये हुए उस पाप को ग्रहण करता है; क्योंकि कर्ता को ही उसके कर्म का वह फल प्राप्त होता है।

इस प्रकार रथ के पहिये के समान निरन्तर घूमते हुए इस संसार चक्र में आकर जीवों का यह समुदाय कार्यवश अन्य प्राणियों से मिलता है। इस संसार में जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओं का आक्रमण होता ही रहता है, जिससे यहाँ का जीवन कभी स्वस्थ नहीं रहता। जो अपार-सा प्रतीत होने वाले इस संसार-को त्याग देता है, उसी को सुख मिलता है। जब देवता भी स्वर्ग से नीचे गिरते हैं और महर्षि भी अपने-अपने स्थान से भ्रष्ट हो जाते हैं, तब कारण-तत्त्व को जानने वाला कौन मनुष्य इस जन्म-मरणरूप संसार से कोई प्रयोजन रखेगा। भाँति-भाँति के भिन्न-भिन्न कर्म करके विख्यात हुआ राजा भी किन्हीं छोटे-मोटे कारणों से ही दूसरे राजाओं द्वारा मार डाला जाता है। आज दीर्घकाल के पश्चात् मुझे यह विवेकरूपी अमृत प्राप्त हुआ है। इसे पाकर मैं अक्षय, अविकारी एवं सनातन पद प्राप्त करना चाहता हूँ। अतः इस पूर्वोक्त धारणा के द्वारा निरन्तर विचरता हुआ मैं निर्भय मार्ग का आश्रय ले जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और वेदनाओं से आक्रान्त हुए इस शरीर को अलग रख दूंगा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में युधिष्ठिर-वाक्य-विषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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