अष्टम (8) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद
नरेश्वर! धन से धर्म का पालन, कामना की पूर्ति, स्वर्ग की प्राप्त, हर्ष की वृद्धि, क्रोध की सफलता, शास्त्रों का श्रवण और अध्ययन तथा शत्रुओं का दमन- ये सभी कार्य सिद्ध होते हैं। धन से कुल की प्रतिष्ठा बढ़ती है और धन से ही धर्म की वृद्धि होती है। पुरुषवर! निर्धन के लिये तो न यह लोक सुखदायक होता है, न परलोक। निर्धन मनुष्य धार्मिक कृत्यों का अच्छी तरह अनुष्ठान नहीं कर सकता। जैसे पर्वत से नदी झरती रहती है, उसी प्रकार धन से ही धर्म का स्त्रोत बहता रहता है। राजन्! जिसके पास धन की कमी है, गौएं और सेवक भी कम हैं तथा जिसके यहाँ अतिथियों का आना-जाना भी बहुत कम हो गया है, वास्तव में वही कृश (दुर्बल) कहलाने योग्य है। जो केवल शरीर से कृश नहीं कहा जा सकता। आप न्याय के अनुसार विचार कीजिये और देवताओं तथा असुरों के बर्ताव पर दृष्टि डालिये। राजन्! देवता अपने जाति-भाइयों का वध करने के सिवा और क्या चाहते हैं (एक पिता की संतान होने के कारण देवता और असुर परस्पर भाई-भाई ही तो हैं)। यदि राजा के लिये दूसरे लिये दूसरे के धन का अपहरण करना उचित नहीं है, तो वह धर्म का अनुष्ठान कैसे कर सकता है? वेद शास्त्रों में भी विद्वानों ने राजा के लिये यही निर्णय दिया है कि 'राजा प्रतिदिन वेदों का स्वाध्याय करे, विद्वान बने, सब प्रकार से संग्रह करके धन ले आये और यत्नपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान करे’। जाति-भाइयों से द्रोह करके ही देवताओं ने स्वर्ग लोक के सभी स्थानों पर अधिकार प्राप्त कर लिया है। देवता जिससे धन या राज्य पाना चाहते हैं, वह ज्ञातिद्रोह के सिबा और क्या है? यही देवतओं का निश्रय है और यही वेदों का सनातन सिद्धान्त है। धन से ही द्विज वेद-शास्त्रों को पढ़ते और पढ़ाते हैं, धन के द्वारा ही यज्ञ करते और कराते हैं तथा राजा लोग दूसरों को युद्ध में जीतकर जो उनका धन ले आते हैं, उसी से वे सम्पूर्ण शुभ कर्मों का अनुष्ठान करते हैं किसी भी राजा के पास हम कोई भी ऐसा धन नहीं देखते हैं, जो दूसरों का अपकार करके न लाया गया हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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