सप्ताशीतितम (87) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्ताशीतितम अध्याय: श्लोक 29-40 का हिन्दी अनुवाद
किसी विपत्ति के समय धन को अधिक प्रिय मानकर छिपाये रखना आपके लिये उचित न होगा’। समय की गतिविधि को पहचानने वाले राजा को चाहिये कि वह इसी प्रकार स्नेहयुक्त और अनुनयपूर्ण मधुर वचनों द्वारा समझा-बुझाकर उपयुक्त उपाय का आश्रय ले अपने पैदल सैनिकों या सेवकों को प्रजाजनों के घर पर धन संग्रह के लिये भेजे। नगर की रक्षा के लिये चहारदिवारी बनवानी है, सेवकों और सैनिकों का भरण-पोषण करना हैं, अन्य आवश्यक व्यय करने हैं, युद्ध के भय को टालना है तथा सबके योग-क्षेम की चिन्ता करनी हैं, इन सब बातों की आवश्यकता दिखाकर राजा धनवान वैश्यों से कर वसूल करे। यदि राजा वैश्यों के हानि-लाभ की परवाह न करके उन्हें करभार से विशेष कष्ट पहुँचाता हैं तो वे राज्य छोड़कर भाग जाते और वन में जाकर रहने लगते है; अतः उनके प्रति विशेष कोमलता का बर्ताव करना चाहिये। कुन्तीनन्दन! वैश्यों की सान्त्वना दे, उनकी रक्षा करे, उन्हें धन की सहायता दे, उनकी स्थिति को सुदृढ़ रखनें का बारंबार प्रयत्न करे, उन्हें आवश्यक वस्तुएँ अर्पित करे और सदा उनके प्रिय कार्य करता रहे। भारत! व्यापारियों को उनके परिश्रम का फल सदा देते रहना चाहिये; क्योंकि वे ही राष्ट्र के वाणिज्य, व्यवसाय तथा खेती की उन्नति करते हैं। अतः बुद्धिमान राजा सदा उन वैश्यों पर यत्न पूर्वक प्रेमभाव बनाये रखे। सावधानी रखकर उनके साथ दयालुता का बर्ताव करे और उन पर हल्के कर लगावें। युधिष्ठिर! राजा को वैश्यों के लिये ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये, जिससे वे देश में सब ओर कुशलपूर्वक विचरण कर सकें। राजा के लिये इससे बढ़कर हितकर काम दूसरा नहीं है। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में राष्ट्र की रक्षा आदि का वर्णनविषयक सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज