महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 87 श्लोक 14-28

सप्ताशीतितम (87) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्ताशीतितम अध्याय: श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद


इसी तरह माल की तैयारी उसकी खपत तथा शिल्प की उत्तम-मध्यम आदि श्रेणियों का बार-बार निरीक्षण करके शिल्प एवं शिल्पकारों पर कर लगावे। युधिष्ठिर! महाराज को चाहिए कि वह लोगों की हैसियत के अनुसार भारी और हलका कर लगावे। भूपाल को उतना ही कर लेना चाहिए जितने से प्रजा सकंट में ना पड़ जाय। उनका कार्य और लाभ देखकर ही सब कुछ करना चाहिए। लाभ और कर्म दोनों ही यदि निष्प्रयोजन हुए तो कोई भी काम करनें में प्रवृत्त नहीं होगा। अतः जिस उपाय से राजा और कार्यकर्ता दोनों को कृषि वाणिज्य आदि कर्म के लाभ का भाग प्राप्त हो उस पर विचार करके राजा को सदैव करों का निर्णय करना चाहिए। अधिक तृष्णा के कारण अपने जीवन के मूल आधार प्रजाओं के जीवनभूत खेती-बारी आदि का उच्छेद न कर डाले। राजा लोभ के दरवाजों को बंद करके ऐसा बने कि उसका दर्शन प्रजामात्र को प्रिय लगे।

यदि राजा अधिक शोषण करने वाला विख्यात हो जाय तो सारी प्रजा उससे द्वेष करने लगती है।। जिससे सब लोग द्वेष करते हों, उसका कल्याण कैसे हो सकता हैं? जो प्रजावर्ग का प्रिय नहीं होता, उसे कोई लाभ नहीं मिलता। जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई हैं, उस राजा को चाहिये कि वह गाय से बछड़े की तरह राष्ट्र धीरे -धीरे अपने उदर की पूर्ति करे। भरतनन्दन युधिष्ठिर! जिस गाय का दूध अधिक नहीं दुहा जाता, उसका बछड़ा अधिक काल तक उसके दूध से पुष्ट हो भारी भार ढोने का कष्ट सहन कर लेता है; परन्तु जिसका दूध अधिक दुह लिया गया हो, उसका बछड़ा कमज़ोर होने के कारण वैसा काम नहीं कर पाता। इसी प्रकार राष्ट्र का भी अधिक दोहन करने से वह दरिद्र हो जाता है; इस कारण वह कोई महान् कर्म नहीं कर पाता। जो राजा स्वयं रक्षा में तत्पर होकर समूचे राष्ट्र पर अनुग्रह करता हैं और उसकी प्राप्त हुई आय से अपनी जीविका चलाता है, वह महान् फल का भागी होता है। राजा को चाहिये कि वह अपने देश में लोगों के पास इकट्ठे हुए धन को आपत्ति के समय काम आने के लिये बढ़ावें और अपने राष्ट्र को घर में रखा हुआ खजाना समझे।नगर और ग्राम के लोग यदि साक्षात् शरण में आये हों या किसी को मध्यस्थ बनाकर उसके द्वारा शरणागत हुए हों, राजा उन सब स्वल्प धन वालों पर भी अपनी शक्ति के अनुसार कृपा करे। जंगली लुटेरों को बाह्यजन कहते हैं, उनमें भेद डालकर राजा मध्यम वर्ग के ग्रामीण मनुष्यों का सुखपूर्वक उपभोग करे-उनसे राष्ट्र के हित के लिये धन ले, ऐसा करने से सुखी और दुःखी दोनों प्रकार के मनुष्य उस पर क्रोध नहीं करते। राजा पहले ही धन लेने की आवश्यकता बताकर फिर अपने राज्य में सर्वत्र दौरा करे और राष्ट्र पर आने वाले भय की ओर सबका ध्यान आकर्षित करे। वह लोगों से कहे-’सज्जनों! अपने देश पर यह बहुत बड़ी आपत्ति आ पहुँची हैं। शत्रु दल के आक्रमण का महान भय उपस्थित हैं। जैसे बाँस मे फल का लगना बाँस के विनाश का ही कारण होता है, उसी प्रकार मेरे शत्रु बहुत-से लुटेरों को साथ लेकर अपने ही विनाश के लिये उठकर मेरे इस राष्ट्र को सताना चाहते हैं’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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