सप्तम (7) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद
मन्त्रियों, सुहृदों तथा वेद-शास्त्रों के ज्ञाता विद्वानों की भी बातें वे नहीं सुन सके। बहुमूल्य रत्न, पृथ्वी के राज्य तथा धन की आय का भी सुख भोगने का उन्हें अवसर नहीं मिला। दुर्योधन हमसे द्वेष रखने के कारण सदा संतत रहकर कभी यहाँ सुख नहीं पाता था। हम लोगों के पास वैसी समृद्धि देखकर उसकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। वह चिन्ता से सूखकर पीला और दुर्बल हो गया था। सुबलपुत्र शकुनि ने राजा धृतराष्ट्र को दुर्योंधन की यह अवस्था सूचित की। पुत्र के प्रति अधिक आसक्त होने के कारण पिता धृतराष्ट्र ने अन्याय में स्थित हो उसकी इच्छा का अनुमोदन किया। इस विषय में उन्होंने अपने पिता (ताऊ) गंगानन्दन भीष्म तथा भाई विदुर से राय लेने की भी इच्छा नहीं की। उनकी इसी दुनीति के कारण निःसंदेह राजा धृतराष्ट्र को भी वैसा ही विनाश प्राप्त हुआ है, जैसा कि मुझे। वे अपने अपवित्र आचार-विचार वाले, लोभी एवं कामा-सक्त पुत्र को काबू में न रखने के कारण उसका तथा उसके सहोदर भाइयों का वध करवाकर स्वयं भी उज्ज्वल यश से भ्रष्ट हो गये। हम लोगों के प्रति सदा द्वेष रखने वाला पापबुद्धि दुर्योधन इन दोनों वृद्धों को शोक की आग में झोंक कर चला गया। संधि के लिये गये हुए श्रीकृष्ण के समीप युद्ध की इच्छा-वाले दुर्योधन ने जैसी बात कही थी, वैसी कौन भाई-बन्धु कुलीन होकर भी अपने सुहृदों के लिये कह सकता है? हम लोगों ने तेज से प्रकाशित होने वाली सम्पूर्ण दिशाओं में मानों आग लगा दी और अपने ही दोष से सदा के लिये नष्ट हो गये। हमारे प्रति शत्रुता का मूर्तिमान् स्वरूप वह दुर्बुद्धि दुर्योधन पूर्णत: बन्धन में बँध गया। दुर्योधन के कारण ही हमारे इस कुल का पतन हो गया। हम लोग अवध्य नरेशों का बध करके संसार मे निन्दा के पात्र हो गये। राजा धृतराष्ट्र इस कुल का विनाश करने वाले दुर्बुद्धि एवं पापात्मा दुर्योधन को इस राष्ट्र का स्वामी बनाकर आज शोक की आग में जल रहे हैं। हमने शूरवीरों को मारा, पाप किया और अपने ही देश का विनाश कर डाला। शत्रुओं को मारकर हमारा क्रोध तो दूर हो गया, परंतु यह शोक मुझे निरन्तर घेरे रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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