महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 75 श्लोक 16-30

पंचसप्ततितम (75) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचसप्ततितम अध्याय: श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद


जिसमें धर्म ही नहीं है, उस राज्य से मुझे क्या लेना है ? अतः अब मैं धर्म करने की इच्छा से वन मेें ही चला जाऊँगा। वहाँ वन के पावन प्रदेशों में हिंसा का सर्वथा त्याग कर दूँगा और जितेन्द्रिय हो मुनिवृत्ति से रहकर फल-मूल का आहार करते हूए धर्म की आराधना करूँगा।

भीष्मजी ने कहा-राजन्! मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बुद्धि में दया और कोमलता रूपी गुण ही भरा है; परंतु केवल दया एवं कोमलता से ही राज्य का शासन नहीं किया जा सकता। तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त कोमल है। तुम बड़े सज्जन और धर्मांत्मा हो। धर्म के प्रति तुम्हारा महान् अनुग्रह हैं। यह सब होने पर भी संसार के लोग तुम्हें कायर समझकर अधिक आदर नहीं देंगे। तुम्हारे बाप-दादों ने जिस आचार-व्यवहार को अपनाया था, उसे ही प्राप्त करने की तुम भी इच्छा रखो। तुम जिस तरह रहना चाहते हो, वह राजाओं का आचरण नहीं हैं। इस प्रकार व्याकुलताजनित कोमलता का आश्रय लेकर तुम यहाँ प्रजापालन से सुलभ होने वाले धर्म के फल को नहीं पा सकोगे। तात! तुम अपनी बुद्धि और विचार से जैसा आचरण करते हो, तुम्हारे विषय में ऐसी आशा न तो पाण्डु ने की थी और न कुन्ती ने ही ऐसी आशा की थी। तुम्हारे पिता पाण्डु तुम्हारे लिये सदा कहा करते थे कि मेरे पुत्र में शूरता, बल और सत्य की वृद्धि हो। तुम्हारी माता कुन्ती भी यही इच्छा किया करती थी कि तुम्हारी महत्ता और उदारता बढ़े। प्रतिदिन यज्ञ और श्राद्ध-ये दोनों कर्म क्रमशः देवताओं तथा मानव-पितरों को आनन्दित करने वाली हैं। देवता और पितर अपनी संतानों से सदा इन्हीं कर्मों की आशा रखते हैं। दान, वेदाध्ययन, यज्ञ तथा प्रजा का पालन- ये धर्मंरूप हों या अधर्मरूप। तुम्हारा जन्म इन्हीं कर्मों को करने के लिये हुआ हैं। कुन्तीनन्दन! यथासमय भार वहन करने में लगाये गये पुरुषों पर जो राज्य आदि का भार रख दिया जाता हैं, उसे वहन करते समय यद्यपि कष्ट उठाना पड़ता है तथापि उससे उन पुरुषों की कीर्ति चिरस्थायी होती हैं, उसका कभी क्षय नहीं होता। जो मनुष्य सब ओर से मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर अपने ऊपर रखे हुए कार्यभार को पूर्णरूप से वहन करता हैं और कभी लड़खड़ाता नहीं है, उसे कोई दोष नहीं प्राप्त होता; क्योंकि शास्त्र में कर्म करने का कथन है; अतः राजा को कर्म करने से ही वह सिद्धि प्राप्त हो जाती है ( जिसे तुम वनवास और तपस्या से पाना चाहते हो )। कोई धर्मनिष्ठ हो, गृहस्थ हो, ब्रह्मचारी हो या राजा हो, पूर्णतया धर्म का आचरण नहीं कर सकता ( कुछ-न-कुछ अधर्म का मिश्रण हो ही जाता हैं )। कोई काम देखने में छोटा होने पर भी यदि उसमें सार अधिक हो तो वह महान् ही हैं। न करने की अपेक्षा कुछ करना ही अच्छा हैं; क्योंकि कर्तव्य-कर्म न करने वाले से बढ़कर दूसरा कोई पापी नहीं हैं। जब धर्मज्ञ एवं कुलीन मनुष्य राजा के यहाँ उत्तम ईश्वरभाव को अर्थात मन्त्री आदि के उच्च अधिकार को पाता हैं, तभी राजा का योग और क्षेम सिद्ध होता है, जो उसके कुशल-मंगल का साधक हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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