महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 57 श्लोक 17-32

सप्तपंचाशत्तम (57) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद

शत्रुओं के छिद्र देखने वाले राजा की सदा ही प्रशंसा की जाती है। जिसे धर्म, अर्थ और काम के तत्त्व का ज्ञान है तथा जिसने शत्रुओं की गुप्त बातों को जानने और उनके मन्त्री आदि को फोड़ने के लिये गुप्तचर लगा रखा है, वह भी प्रशंसा के ही योग्य है। राजा को उचित है कि वह सदा अपने कोषागार को भरा-पूरा रखने का प्रयत्न करता रहे, उसे न्याय करने में यमराज और धन-संग्रह करने में कुबेर के समान होना चाहिए। वह स्थान, वृद्धि तथा क्षय के हेतुभूत दस[1] वर्गों का ज्ञान रखे। जिनके भरण- पोषण का प्रबन्ध न हो उनका पोषण राजा स्वयं करे और उसके द्वारा जिनका भरण-पोषण चल रहा हो, उन सबकी देखभाल रखे। राजा को सदा प्रसन्नमुख रहना और मुस्कराते हुए वार्तालाप करना चाहिए। राजा को वृद्ध पुरुषों की उपासना ( सेवा या संग ) करनी चाहिए, वह आलस्य को जीते और लोलुपता का परित्याग करे। सत्पुरुषों के व्यवहार में मन लगावे। संतुष्ट होने योग्य स्वभाव बनाये रखे। वेश-भूषा ऐसी रखे, जिससे वह देखने में अत्यन्त मनोहर जान पड़े।

साधु पुरुषों के हाथ से कभी धन न छीने। असाधु पुरुषों से दण्ड के रूप में धन लेना चाहिये; साधु पुरुषों को तो धन देना चाहिये। स्वयं दुष्टों पर प्रहार करे, दानशील बने, मन को वश में रखे, सुरम्य साधन से युक्त रहे, समय-समय पर धन का दान और उपभोग भी करे तथा निरन्तर शुद्ध एवं सदाचारी बना रहे। जो शूरवीर एवं भक्त हों, जिन्हें विपक्षी फोड़ न सकें, जो कुलीन, नीरोग एवं शिष्ट हों तथा शिष्ट पुरुषों से सम्बन्ध रखते हों, जो आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए दूसरों का कभी अपमान न करते हों, धर्मपरायण, विद्वान, लोकव्यवहार के ज्ञाता और शत्रुओं की गतिविधि पर दृष्टि रखने वाले हों, जिनमें साधुता भरी हो तथा जो पर्वतों के समान अटल रहने वाले हों, ऐसे लोगों को ही राजा सदा अपना सहायक बनावें और उन्हें ऐश्वर्य का पुरस्कार दे। उन्हें अपने समान ही सुखभोग की सुविधा प्रदान करे, केवल राजोचित छत्र धारण करना और सबको आज्ञा प्रदान करना- इन दो बातों में ही वह उन सहायकों की अपेक्षा अधिक रहे। प्रत्यक्ष और परोक्ष में भी उनके साथ राजा का एक सा ही बर्ताव होना चाहिये। ऐसा करने वाला नरेश इस जगत में कभी कष्ट नहीं उठाता। जो राजा सब पर संदेह करता और सबका सर्वस्व हर लेता है, वह लोभी और कुटिल राजा एक दिन अपने ही लोगों के हाथ से शीघ्र मारा जाता है। जो भूपाल बारह भीतर से शुद्ध रहकर प्रजा के हद्य को अपनाने का प्रयत्न करता है, वह शत्रुओं का आक्रमण होने पर भी उनके वश में नहीं पड़ता, यदि उसका पतन हुआ भी तो वह सहायकों को पाकर शीघ्र ही उठ खड़ा होता है। जिसमे क्रोध का अभाव होता है, जो दुव्र्यसनों से दुर रहता है, जिसका दण्ड भी कठोर नहीं होता तथा जो अपनी इन्द्रियों पर विजय पा लेता है, वह राजा हिमालय के समान सम्पूर्ण प्राणियोंका विश्वास बन जाता है। जो बुद्धिमान, त्यागी, शत्रुओं की दुर्बलता जानने के प्रयत्न में तत्पर, देखने मे सुन्दर, सभी वर्णों के न्याय और अन्याय को समझने वाला, शीघ्र कार्य करने में समर्थ, क्रोध पर विजय पाने वाला, आश्रितों पर कृपा करने वाला, महामनस्वी, कोमल स्वभाव से युक्त, उद्योगी, कर्मठ तथा आत्मप्रशंसा से दुर रहने वाला है, राजा के आरम्भ किये हुए सभी कार्य सुन्दर रूप से समाप्त होते दिखायी देते हैं, वह समस्त राजाओं मे श्रेष्ठ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग (किला), खजाना और दण्ड- ये पाँच प्रकृति कहे गये हैं। ये ही अपने और शत्रु पक्ष के मिलाकर दशवर्ग कहलाते है, यदि दोनों के मन्त्री आदि समान हों तो ये स्थान के हेतु होते हैं। अर्थात् दोनों पक्ष की स्थिति कायम रहती है, अगर अपने पक्ष में इनकी अधिकता हो तो ये वृद्धि के साधक होते हैं और कमी हो तो क्षय के कारण बनते है। मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग (किला), खजाना और दण्ड- ये पाँच प्रकृति कहे गये है। ये ही अपने और शत्रु पक्ष को मिलाकर दशवर्ग कहलाते हैं, यदि दोनों के मन्त्री आदि समान हों तो ये स्थान के हेतु होते हैं। अर्थात् दोनों पक्ष की स्थिति कायम रहती है, अगर अपने पक्ष में इनकी अधिकता हो तो ये वृद्धि के साधक होते हैं और कमी हो तो क्षय के कारण बनते हैं।

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