महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 47 श्लोक 83-98

सप्तचत्वारिंश(47) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 38-49 का हिन्दी अनुवाद

जो सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा और उनकी जन्म-मृत्यु के कारण हैं, जिनमें क्रोध, द्रोह और मोह का सर्वथा अभाव है, उन शान्तात्मा परमेश्वर को नमस्कार है। जिनके भीतर सब कुछ रहता है, जिनसे सब उत्पन्न होता है, जो स्वयं ही सर्वस्वरूप हैं, सदा ही सब ओर व्यापक हो रहे हैं और सर्वमय हैं, उन सर्वात्मा को प्रणाम है। इस विश्व की रचना करने वाले परमेश्वर! आपको प्रणाम हैं। विश्व के आत्मा और विश्व की उत्पत्ति के स्थानभूत जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप पाँचों भूतों से परे हैं और सम्पूर्ण प्राणियों के मोक्ष स्वरूप ब्रह्म हैं। तीनों लोकों में व्याप्त हुए आपको नमस्कार है, त्रिभुवन में परे रहने वाले आपको प्रणाम है, सम्पूर्ण दिशाओं मे व्यापक आप प्रभु को नमस्कार है; क्योंकि आ सब पदार्थो से पूर्ण भण्डार हैं। संसार की उत्पत्ति करने वाले अविनाशी भगवान् विष्णु! आपको नमस्कार है। हृषीकेश! आप सबके जन्मदाता और संहारकर्ता हैं। आप किसी से पराजित नहीं होते। मैं तीनों लोकों में आपके दिव्य जन्म-कर्म का रहस्य नहीं जान पाता; मैं तो तत्त्वदृष्टि से आपका जो सनातन रूप है, उसी की और लक्ष्य रखता हूँ। स्वर्गलोक आपके मस्तक से, पृथ्वी देवी आपके पैरों से और तीनों लोक आपके तीन पगों से व्याप्त हैं, आप सनातन पुरुष हैं। दिशाएँ आपकी भुजाएँ, सूर्य आपके नेत्र और प्रजापति शुक्राचार्य आपके वीर्य हैं। आपने ही अत्यन्त तेजस्वी वायु के रूप में ऊपर के सातों मार्गों को रोक रखा है।। जिनकी कान्ति अलसी के फूल की तरह साँवली है, शरीर पर पीताम्बर शोभा देता है, जो अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते, उन भगवान् गोविन्द को जो लोग नमस्कार करते हैं, उन्हें कभी भय नहीं होता। भगवान् श्रीकृष्ण को एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञों के अन्त में किये गये स्नान के समान फल देने वाला होता है। इसके सिवा प्रणाम में एक विशेषता है - दस अश्वमेध करने वाले का तो पुनः इस संसार में जनम होता है, किंतु श्रीकृष्ण को प्रणाम करने वाला मनुष्य फिर भव-बन्धन में नहीं पड़ता। जिन्होंने श्रीकृष्ण-भजन का ही व्रत ले रखा है, जो श्रीकृष्ण का निरन्तर स्मरण करते हुए ही रात को सोते हैं और उन्हीं का स्मरण करते हुए सवेरे उठते हैं, वे श्रीकृष्णस्वरूप होकर उनमें इस तरह मिल जाते हैं, जैसे मन्त्र पढ़कर किया हुआ घी अग्नि में मिल जाता है।। जो नरक के भय से बचाने के लिये रक्षा मण्डल का निर्माण करने वाले और संसार रूपी सरिता की भँवर से पार उतारने के लिये काठ की नाव के समान हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है। जो ब्राह्मणों के प्रेमी तथा गौ और ब्राह्मणों के हितकारी हैं, जिनसे समस्त विश्व का कल्याण होता है, उन सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् गोविन्द को प्रणाम है।। ‘हरि’ ये दो अखर दुर्गम पथ के संकट के समय प्राणों के लिये राह-खर्च के समान हैं, संसाररूपी रोग से छुटकारा दिलवाने के लिये औषध तुल्य हैं तथा सब प्रकार के दुःख-शोक से उद्धार करने वाले हैं। जैसे सत्य विष्णुमय है, जैसे सारा संसार विष्णुमय है, जिस प्रकार सब कुछ विष्णुमय है, उस प्रकार इस सत्य के प्रभाव से मेरे सारे पाप नष्ट हो जायँ। देवताओं में श्रेष्ठ कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण! मैं आपका शरणागत भक्त हूँ और अभीष्ट गति को प्राप्त करना चाहता हूँ; जिसमें मेरा कल्याण हो, वह आप ही सोचिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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