सप्तचत्वारिंश (47) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 22-37 का हिन्दी अनुवाद
भगवान सदा नित्य विद्यमान ( कभी नष्ट न होने वाले ) और तने हुए एक सुदृढ़ सूत के समान हैं। उनमें यह कार्य-कारण रूप जगत् उसी प्रकार गुँथा हुआ है, जैसे सूत में फूल की माला। यह सम्पूर्ण विश्व उनके ही श्रीअंग में स्थित है; उन्होंने ही इस विश्व की सृष्टि की है। उन श्रीहरि के सहस्रों सिर, सहस्रों चरण और सहस्रों नेत्र हैं, वे सहस्रों भुजाओं, सहस्रों मुकुटों तथा सहस्रों मुखों से देदीप्यमान रहते हैं। वे ही इस विश्व के परम आधार हैं। इन्हीं को नारायणदेव कहते हैं। वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और स्थूल से भी स्थूल। वे भारी-से-भारी ओर उत्तम से भी उत्तम हैं। वाकों[1] और अनुवाकों[2], निषदों[3] और उपनिषदों[4] में तथा सच्ची बात बताने वाले साममन्त्रों में उन्हीं को सत्य और सत्यकर्मा कहते हैं। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध - इन चार दिव्य गोपनीय और उत्तम नामों द्वारा ब्रह्म, जीव, मन और अहंकार - इन चार स्वरूपों में प्रकट हुए उनहीं भक्तप्रतिपालक भगवान श्रीकृष्ण की पेजा की जाती है, जो सबके अनतःकरण में विद्यमान हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सामान्यतः कर्ममात्र को प्रकाशित करने वाले मन्त्रों को ‘वाक’ कहते हैं।
- ↑ मन्त्रों को खोलकर बताने वाले ब्राह्मण ग्रन्थों के जो वाक्य हैं, उनका नाम ‘अनुवाक’ है।
- ↑ कर्म के अंग आदि से सम्बन्ध रखने वाले देवता आदि का ज्ञान कराने वाले वचन ‘निषद्’ कहलाते हैं।
- ↑ विशुद्ध आतमा एवं परमात्मा का ज्ञान कराने वाले वचनों की ‘उपनिषद्’ संज्ञा है।
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