महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 341 श्लोक 20-37

एकचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (341) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद


समस्त प्राणियों को वर देने वाले वे दोनों देवता सृष्टि और प्रलय के निमित्त मात्र हैं। (वास्तव में तो वह सब कुछ भगवान की इच्छा से ही होता है।) इनमें से संहारकारी रुद्र के कपर्दी (जटाजूटधारी), जटिल, मुण्ड, श्मशानगृह का सेवन करने वाले, उग्र व्रत का आचरण करने वाले, रुद्र, योगी, परम दारुण, दक्षयज्ञ-विध्वंसक तथा भगनत्रहारी आदि अनेक नाम हैं। पाण्डुनन्दन! इन भगवान रुद्र को नारायणस्वरूप ही जानना चाहिये। पार्थ! प्रत्सेक युग में उन देवाधिदेव महेश्वर की पूजा करने से सर्वसमर्थ भगवान नारायण की ही पूजा होती है। पाण्डुकुमार! मैं सम्पूर्ण जगत् का आत्मा हूँ। इसलिये मैं पहले अपने आत्मारूप रुद्र की ही पूजा करता हूँ। यदि मैं वरदाता भगवान शिव की पूजा न करूँ तो दूसरा कोई भी उन आत्मरूप शंकर का पूजन नहीं करेगा, ऐसी मेरी धारणा है। मेरे किये हुए कार्य को प्रमाण या आदर्श मानकर सब लोग उसका अनुसरण करते हैं। जिनकी पूजनीयता वेदशास्त्रों द्वारा प्रमाणित है, उन्हीं देवताओं की पूजा करनी चाहिये। ऐसा सोचकर ही मैं रुद्रदेव की पूजा करता हूँ। जो रुद्र को जानता है, वह मुझे जानता है। जो उनका अनुगामी है, वह मेरा भी अनुगामी है।। कुन्तीनन्दन! रुद्र और नारायण दोनों एक ही स्वरूप हैं, जो दो स्वरूप धारण करके भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में स्थित हो संसार में यज्ञ आदि सब कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। पाण्डवों को आननिदत करने वाले अर्जुन! मुझे दूसरा कोई वर नहीं दे सकता; यही सोचकर मैंने पुत्र-प्राप्ति के लिये स्वयं ही अपने आत्मस्वरूप पुराणपुरुष जगदीश्वर रुद्र की आराधना की थी। विष्णु अपने आत्मस्वरूप रुद्र के सिवा किसी दूसरे देवता को प्रणाम नहीं करते; इसलिये मैं रुद्र का भजन करता हूँ। ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र तथा ऋष्यिों सहित सम्पूर्ण देवता सुरश्रेष्ठ नारायणदेव श्रीहरि की अर्चना करते हैं। भरतनन्दन! भूत, भेवष्य और वर्तमान तीनों कालों मे होने वाले समसत पुरुषों के भगवान विष्णु ही अग्रगण्य हैं; अतः सबको सदा उन्हीं की सेवा-पूजा करनी चाहिये। कुन्ती कुमार! तुम हवयदाता विष्णु को नस्कार करो, शरणदाता श्रीहरि को शीश झुकाओ, वरदाता विष्णु की वन्दना करो तथा हव्यकव्य भोक्ता भगवान को प्रणाम करो। तुमने मुझसे सुना है कि आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी - ये चार प्रकार के मनुष्य मेरे भक्त हैं। इनमें जो एकान्ततः मेरा ही भजन करते हैं, दूसरे देवताओं को अपना आराध्यनहीं मानते वे सबसे श्रेष्ठ हैं। निष्काम भाव से समस्त कर्म करने वाले उन भक्तों की परमगति मैं ही हूँ।। जो शेष तीन प्रकार के भक्त हैं, वे फल की इच्छा रखने वाले माने गये हैं। अतः वे सभी नीचे गिरनेवाले होते हैं - पुण्यभोग के अनन्तर स्वर्गादि लोाकों से च्युत हो जाते हैं, परंतु ज्ञानी भक्त सर्वश्रेष्ठ फल (भगवत्प्राप्ति) का भागी होता है। ज्ञानी भक्त ब्रह्मा, शिव तथा दूसरे देवताओं की निष्काम भाव से सेवा करते हुए भी अन्त में मुझ परमात्मा को ही प्राप्त होते हैं। पार्थ! यह मैंने तुमसे भक्तों का अन्तर बतलाया है। कुन्तीनन्दन! तुम और मैं दोनों ही नर-नारायण नामक ऋषि हैं और पृथ्वी का भार उतारने के लिये हमने मानव-शरीर में प्रवेश किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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