महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 337 श्लोक 18-40

सप्तत्रिंशदधिकत्रिशततम (337) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तत्रिंशदधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद


उस समय भी भगवान् नारायण की आज्ञा से उनकी स्मरण शक्ति उन्हें छोड़ न सकी। इधर सब देवता एकत्र होकर राजा को शाप से छुटकारा दिलाने का उपाय सोचने लगे। वे शान्तभाव से

परस्पर बोले - ‘राजा ने तो पुण्य-ही-पुण्य किया है। उन महात्मा नरेश को हमारे कारण से ही यअ शापउ प्राप्त हुआ है। ‘देवताओं! हम लोगों को एक साथ होकर उनका अतिशय प्रिय करना चाहिये।’ अपनी बुद्धि के द्वारा ऐसा निश्चय करके वे सभी देवता राजा उपरिचर वसु के पास जाकर प्रसन्नचित्त हो बोले ‘राजन्! तुम ब्रह्मण्यदेव भगवान् विष्णु के भक्त हो और वे श्रीहरि देवता तािा असुर सबके गुरु हैं। उनका मन तुम पर संतुष्ट है; इसलिये वे तुम्हारी इच्छा के अनुसार तुम्हें अवयश्य ही शाप मुक्त कर देंगे। ‘नृपश्रेष्ठ! तुम्हें महात्मा ब्राह्मणों का सदा ही समादर करना चाहिये। अवश्य ही यह उनकी तपस्या का फल है; जिससे तुम आकाश से सहसा भ्रष्ट होकर पाताल में चले आये हो। ‘निष्पाप नृपशिरोमणि! हम तुम्हें अपना एक अनुग्रह प्रदान करते हैं। तुम शापदोष के कारण जब तक - जितने समय तक पृथ्वी के विवर में रहोगे, तब तक एकाग्रचित्त ब्राह्मणों द्वारा यज्ञों में दी हुई वसुधारा की आहुति तुम्हें प्राप्त होती रहेगी। ‘राजेन्द्र! हमारे चिन्तन में तुम्हें वसेधारा की प्राप्ति होगी, जिससे ग्लानि तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकेगी और इस पाताल में रहते हुए भी तुम्हें भूख और प्यास का कष्ट नहीं होगा; क्योंकि वसुधारा का पान करने से तुम्हारे तेज की वृद्धि होती रहेगी। हमारे वरदान से भगवान् श्रीहरि प्रसन्न हो तुम्हें ब्रह्मलोक में ले जायेंगे। इस प्रकार राजा को वरदान देकर वे सब देवता तथा तपोधन ऋषि अपने-अपने स्थान को चले गये। भारत! तदनन्तर वसु ने भेगवान् विष्वक्सेन की पूजा आरम्भ की और भगवान् नारायण के मुख से प्रकट हुए जपनीय मन्त्र (ऊँ नमो नारायणाय) का निरन्तर जप करने लगे। शत्रुदमन युधिष्ठिर! वहाँ पाताल के विवर में रहते हुए भी राजा उपरिचर पाँच समय पाँच यज्ञों द्वारा देवेश्वर श्रीहरि की आराधना करते थे। उन्होंने अपने मन को जीत लिया था और वे सदा भगवान् के भजन में ही लगे रहते थे। अपने उस अनन्य भक्त की भक्ति से भगवान् श्रीनारायण हरि बहुत संतुष्ट हुए। फिर उन वरदायक भगवान् विष्णु ने अपने पास ही खड़े हुए महान् वेगशाली पक्षिराज गरुड़ से अपनी अभीष्ट बात इस प्रकार कही ‘महाभाग पक्षि प्रवर! तुम मेरी आज्ञा से कठोर व्रत का पालन करने वाले धर्मात्मा सम्राट राजा वसु के पास जाकर उन्हें देखो’। ‘पक्षिराज! वे ब्राह्मणों के कोपउ से पाताल में प्रविष्ट हुए हैं। फिर भी उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मणों का सदा सम्मान ही किया है; अतः तुम उनके पास जाओ’। ‘गरुड़! पृथ्वी के विवर में सुरक्षित रूप से रहने वाले इन पातालचारी नृपश्रेष्ठ वसु को तुम मेरी आज्ञा से शीघ्र ही आकाशचारी बना दो’। यह आज्ञा पाकर वायु के समान वेगशाली गरुड़ अपने दानों पंख फैलाकर उडत्रे और पाताल में जहाँ राजा वसु विराजमान थे, घुस गये। विनतानन्दन गरुड़ सहसा राजा को वहाँ से ऊपर उठाकर तुरंत आकाश में ले उड़े और वहीं इन्हें छोड़ दिया।। उसी क्षण राजा वसु पुनः उपरिचर हो गये। फिर वे नृपश्रेष्ठ सशरीर ब्रह्मलोक में चले गये। कुन्तीनन्दन! इस प्रकार उस महामनस्वी नरेश ने भी देवताओं की आज्ञा से वाचिक अपराध करने के कारण ब्राह्मणों के शाप से अधोगति प्राप्त की थी। फिर उन्होंने केवल पुरुष प्रवर भगवान् श्रीहरि का सेवन किया, जिससे वे उस शाप से शीघ्र ही छूट गये और ब्रह्मलोक में जा पहुँचे।

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर! श्वेतद्वीप के निवासी पुरुष जैसे हैं, उनकी सारी स्थिति मैंने तुमसे कह सुनायी। अब देवर्षि नारद जिस प्रकार श्वेतद्वीप में गये, वह सब प्रसंग तुमसे कहूँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में नारायण की महिमा का वर्णन विषयक तीन सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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