महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 334 श्लोक 19-45

चतुस्त्रिंशदधिकत्रिशततम (334) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकत्रिशततमअध्‍याय: श्लोक 19-45 का हिन्दी अनुवाद


‘ये ही दोनों परमधाम स्वरूप हैं। इनका यह नित्य कर्म कैसा है ? ये दोनों यशस्वी देवता सम्पूर्ण प्राणियों के पिता और देवता हैं। ये परम बुद्धिमान दोनों बन्धु भला किस देवता का यजन और किन पितरों का पूजन करते हैं ?’ मन-ही-मन ऐसा सोचकर भगवान् नारायण के प्रति भक्ति से प्रेरित हो नारदजी सहसा उन दवताओं के समीप प्रकट हो गये। भगवान् नर और नारायण जब देवता और पितरों की पूजा समाप्त कर चुके, तब उनहोंने नारदजी को देखा और शास्त्र में बतायी हुई विधि से उनका पूजन किया। उनके द्वारा शास्त्रविधि का यह अपूर्व विस्तार और अत्यन्त आश्चर्यजनक व्यवहार देखकर उनके पास ही बैठे हुए देवर्षि भगवान् नारद अत्यन्त प्रसन्न हुए। प्रसन्न चित्त से महादेव भगवान् नारायण की ओर देखकर नारदजी ने उन्हें नमस्कार किया और इस प्रकार कहा।

नारदजी बोले- भगवान्! अंग और उपांगों सहित सम्पूर्ण वेदों तथा पुराणों में आपकी ही महिमा का गान किया जाता है। आप अजन्मा, सनातन, सबके माता-पिता और सर्वोत्तम अमृतरूप हैं। देव! आपमें ही भूत, भविष्य और वर्तमान कालीन यह सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। गार्हस्थ्यमूलक चारों आश्रमों के सब लोग नाना रूपों में स्थित हुए आपकी ही प्रतिदिन पूजा करते हैं। आप ही सम्पूर्ण जगत् के माता, पिता और सनातन गुरु हैं, जो भी आज आप किस देवता और किस पितर की पूजा करते हैं ? यह मैं समझ नहीं पाया। अतः महाभाग! मैं आपसे पूछ रहा हूँ ‘मुण्े बताइये कि आप किसकी पूजा करते हैं ?नर-नारायण का नारदजी के साथ संवाद

श्रीभगवान‍ बोले - ब्रह्मन्! तुमने जिसके विषय में प्रश्न किया है, वह अपने लिये गोपनीय विषय है। यद्यपि यह सनातन रहस्य किसी से कहने योग्य नहीं है, तथापि तुम जैसे भक्त पुरुष को तो उसे बताना ही चाहिये; अतः मैं यथार्थ रूप से इस विषय का वर्णन करूँगा। जो सूक्ष्म, अज्ञेय, अव्यक्त, अचल और ध्रुव है, जो इन्द्रियों, विषयों और सम्पूर्ण भूतों से परे है, वही सब प्राधियों का अन्तरात्मा है; अतः क्षेत्रज्ञ नाम से कहा जाता है, वही त्रिगुणातीत तथा पुरुष कहलाता है। उसी से त्रिगुणमय अव्यक्त की उत्पत्ति हुई है। द्विजश्रेष्ठ! उसी को व्यक्त भाव में स्थित? अविनाशिनी अव्यक्त प्रकृति कहा गया है। वह सदसत्स्वरूप परमात्मा ही हम दोनों की उत्पत्ति का कारण है, इस बात को जान लो। हम दोनों उसी की पूजा करते तथा उसी को देवता और पितर मानते हैं। ब्रह्मन्! उससे बढ़कर दूसरा कोई देवता या पितर नहीं है। वही हम लोागों का आत्मा है, यह जानना चाहिये। अतः हम उसी की पूजा करते हैं। ब्रह्मन्! उसी ने लोक को उन्नति के पथ पर ले जाने वाली यह धर्म की मर्यादा स्थापित की है। देवताओं और पितरों की पूजा करती चाहिये, यह उसी की आज्ञा है। ब्रह्मा, रुद्र, मनु, दक्ष, भृगु, धर्म, तप, यम, मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पलत्स्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, कर्दम, क्रोध और विक्रीत - ये इक्कीस प्रजापति उसी परमात्मा की सनातन धर्म-मार्यादा का पालन एवं पूजन करते हैं। श्रेष्ठ द्विज उसी के उद्देश्य से किये जाने वाले देवता तथा पितृ-सम्बन्धी कार्यों की ठीक-ठीक जानकर अपनी अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लेते हैं। स्वर्ग में रहने वाले प्राणियों में से भी जो कोई उस परमात्मा को प्रणाम करते हैं, वे उसके कृपा-प्रसाद से उसी की आज्ञा अनुसार फल देने वाली उत्तम गति को प्रापत करते हैं। जो पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेंद्रिय, पाँच प्राण तथा मन और बुद्धिरूप सत्रह गुणों से, सब कर्मों से रहित हो पंद्रह कलाओं को त्याग करके सिथत है, वे ही मुक्त हैं, यह शास्त्र का सिद्धान्त है। ब्रह्मन्! मुक्त पुरुषों की गति क्षेत्रज्ञ परमात्मा निश्चित किया गया है। वही सर्वसद्गुण सम्पन्न तथा निर्गुण भी कहलाता है। ज्ञानयोग के द्वारा उसका साक्षात्कार होता है। हम दोनों का आविर्भाव उसी से हुआ है - ऐसा जानकर हम दोनों उस सनातन परमात्मा की पूजा करते हैं। चारों वेद, चारों आश्रम तथा नाना प्रकार के मतों का आश्रय लेने वाले लोग भक्तिपूर्वक उसकी पूजर करते हैं और वह इन सबको शीघ्र ही उत्तम गति प्रदान करता है। जो सदा उसका स्मरण करते तथा अनन्य भाव से उसकी शरण लेते हैं, उन्हें सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि वे उसके स्वरूप में प्रवेश कर जाते हैं। नारद! ब्रह्मर्षे! तुममें भगवान् के प्रति भक्ति और प्रेम है। हम लोगों के प्रति भी तुम्हारा भक्ति भाव बना हुआ है। इसलिये हमने तुम्हारे सामने इस गोपनीय विषय का वर्णन किया है और तुमहें इसे सुनने का शुभ अवसर मिला है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में तीन सौ चैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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